आओ बच्चों ! अबकी बारी होली अलग मनाते हैं

चित्र
  आओ बच्चों ! अबकी बारी  होली अलग मनाते हैं  जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । ऊँच नीच का भेद भुला हम टोली संग उन्हें भी लें मित्र बनाकर उनसे खेलें रंग गुलाल उन्हें भी दें  छुप-छुप कातर झाँक रहे जो साथ उन्हें भी मिलाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । पिचकारी की बौछारों संग सब ओर उमंगें छायी हैं खुशियों के रंगों से रंगी यें प्रेम तरंगे भायी हैं। ढ़ोल मंजीरे की तानों संग  सबको साथ नचाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । आज रंगों में रंगकर बच्चों हो जायें सब एक समान भेदभाव को सहज मिटाता रंगो का यह मंगलगान मन की कड़वाहट को भूलें मिलकर खुशी मनाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । गुझिया मठरी चिप्स पकौड़े पीयें साथ मे ठंडाई होली पर्व सिखाता हमको सदा जीतती अच्छाई राग-द्वेष, मद-मत्सर छोड़े नेकी अब अपनाते हैं  जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । पढ़िए  एक और रचना इसी ब्लॉग पर ●  बच्चों के मन से

नवगीत : यादें गाँव की

Beautiful memories of village


दशकों पहले शहर आ गये
नहीं हुआ फिर गाँव में जाना

ऊबड़-खाबड़ सी वो राहें,
शान्ति अनंत थी घर-आँगन में।
अपनापन था सकल गाँव में,
भय नहीं था तब कानन में।
यहाँ भीड़ भरी महफिल में,
मुश्किल है निर्भय रह पाना।
दशकों पहले शहर आ गये,
नहीं हुआ फिर गाँव में जाना।

मन अशांत यूँ कभी ढूँढ़ता,
वही शान्त पर्वत की चोटी।
तन्हाई भी पास न आती,
सुनती ज्यूँ प्रतिध्वनि वो मोटी।
यूँ कश्ती भी भूल गई है,
कागज वाली आज ठिकाना।
दशकों पहले शहर आ गये,
नहीं हुआ फिर गाँव में जाना।


टिप्पणियाँ

  1. क्या बात वाह खूबसूरत भाव,खूबसूरत रचना।

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह सुन्दर प्रस्तुति गावों में ही वास्तविक जिंदगी जी जाती है

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी, रितु जी सही कहा आपने..
      अत्यंत आभार एवं धन्यवाद आपका।

      हटाएं
  3. बहुत सुंदर नव गीत सृजन सुधा जी।
    भूली बिसरी ही सही यादें बार बार जेहन में मचलती है जरूर।
    सुंदर।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी, कुसुम जी हृदयतल से धन्यवाद आपका...
      सादर आभार।

      हटाएं
  4. क्या बात वाह सुधा जी अति भावपूर्ण लेखन।
    ----
    स्मृतियाँँ राह ढूँढ रही गाँव की
    मजबूरियाँ बेड़ी बन रही पाँव की

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. वाह!श्वेता जी बहुत ही भावपूर्ण पंक्तियाँ...
      सहृदय धन्यवाद एवं आभार आपका।

      हटाएं
  5. मन अशांत यूँ कभी ढूँढ़ता,
    वही शान्त पर्वत की चोटी।
    तन्हाई भी पास न आती,
    सुनती ज्यूँ प्रतिध्वनि वो मोटी।

    सुंदर रचना, मैम।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभारी हूँ विकास जी!हार्दिक धन्यवाद आपका।

      हटाएं
  6. उत्तर
    1. हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार, जयप्रकाश जी!
      ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

      हटाएं
  7. बहुत खूब ...
    सच ही है ... बीता समय ... बीती बातें ... ये माहोल .... ये मौसम ... सब कुछ ही तो याद आता है ...
    फिर गाँव का जीवन ... सादा, स्वक्ष, आनद भरा .... उसको भुलाना आसान नहीं होता ,,,

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी, नासवा जी!अपनी जन्मभूमि की यादों को बिसराना आसान नहीं होता।
      तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।

      हटाएं
  8. अपनापन था सकल गाँव में,
    भय नहीं था तब कानन में।
    यहाँ भीड़ भरी महफिल में,
    मुश्किल है निर्भय रह पाना।
    दशकों पहले शहर आ गये,
    नहीं हुआ फिर गाँव में जाना।..
    गाँव से जुड़ी यादों को भुलाना कहाँ आसान होता है...बहुत ही भावपूर्ण सृजन सुधा जी !!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभारी हूँ मीना जी ! तहेदिल से धन्यवाद आपका।

      हटाएं
  9. सुधा दी, आपने तो बचपन की गांव में बिताए मधुर क्षणों की याद दिला दी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बचपन की यादें हमेशा साथ रहती हैं ज्योति जी!
      अत्यंत आभार एवं धन्यवाद आपका।

      हटाएं
  10. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 28 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हार्दिक धन्यवाद सर!रचना साझा करने हेतु।
      सादर आभार।

      हटाएं
  11. अत्यंत आभार एवं धन्यवाद आ. जोशी जी !

    जवाब देंहटाएं
  12. जरूरतें खींच तो लाई शहर मे ,मगर सुकून वो नही दे पाई जो रहा गांव में ,सादा जीवन उच्च विचार ,जीवन के है ये दो आधार , गांव में रहकर ही संभव है ,अति उत्तम रचना नमन

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी , सही कहा आपने जरूरतों की आपूर्ति के लिए ही शहर निकले...जीवन का सच्चा सुख तो गाँवों में ही है
      तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।

      हटाएं
  13. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(०२-०५-२०२०) को "मजदूर दिवस"(चर्चा अंक-३६६८) पर भी होगी
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
    महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    **
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  14. सहृदय धन्यवाद अनीता जी!प्रतिष्ठित चर्चा मंच पर मेरी रचना साझा करने हेतु...
    सस्नेह आभार।

    जवाब देंहटाएं
  15. बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  16. मन अशांत यूँ कभी ढूँढ़ता,
    वही शान्त पर्वत की चोटी।
    तन्हाई भी पास न आती,
    सुनती ज्यूँ प्रतिध्वनि वो मोटी।

    इस lock-down में गाँव घुमा लाये आप, बहुत सुन्दर रचना गाँव की याद आ गयी.....

    जवाब देंहटाएं

  17. मन अशांत यूँ कभी ढूँढ़ता,
    वही शान्त पर्वत की चोटी।
    तन्हाई भी पास न आती,
    सुनती ज्यूँ प्रतिध्वनि वो मोटी।

    इस lock-down में गाँव घुमा लाये आप, बहुत सुन्दर रचना गाँव की याद आ गयी.....

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी, मन लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन कर गाँँव घूम आया...पहाड़ों पर बसे अपने गाँव भुलाये नहीं भूल पाते...
      हृदयतल से धन्यवाद आपका उत्साहवर्धन हेतु...।
      सादर आभार।

      हटाएं

एक टिप्पणी भेजें

फ़ॉलोअर

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

तन में मन है या मन में तन ?

मन की उलझनें