बिटिया का घर बसायें संयम से
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चित्र,साभारShutterstock.com से |
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"क्या हुआ माँ जी ! आप यहाँ बगीचे में....? और कुछ परेशान लग रही हैं" ? शीला ने सासूमाँ (सरला) को घर के बगीचे में चिंतित खड़ी देखा तो पूछा।तभी पीछे से सरला का बेटा सुरेश आकर बोला,
"माँ ! आप निक्की को लेकर वही कल वाली बात पर परेशान हैं न ? माँ आप अपने जमाने की बात कर रहे हो, आज जमाना बदल चुका है । आज बेटा बेटी में कोई फर्क नहीं । और पूरे दस दिन से वहीं तो है न निक्की।और कितना रहना, अब एक चक्कर तो अपने घर आना ही चाहिए न। आखिर हमारा भी तो हक है उसपे " ।
"बस ! तू चुप कर ! बड़ा आया हक जताने वाला...
अरे ! अगर वो खुद ही मना कर रही है तो कोई काम होगा न वहाँ पर...। कैसे सब छोड़ -छाड़ दौड़ती रहेगी तुम्हारे कहने पर वो " सरला ने डपटते हुए कहा।
"वही तो माँ ! काम होगा ! और काम करने के लिए बस हमारी निक्की ही है ? और कोई नहीं उस घर में? नौकरानी नहीं वो बहू है उस घर की।अरे ! उसको भी हक है अपनी मर्जी से जीने का"। सुरेश चिढ़कर बोला।
"हाँ ! हक है । किसने कहा कि नहीं है उसका हक ? हो सकता है उसकी खुद की मर्जी न हो अभी यहाँ आने की"।
"नहीं माँजी निक्की तो खुश ही होगी न अपने घर आने में....जरूर उसे मना किया होगा उन्होंने । मुझे तो लगता है अभी से तेवर दिखाने लग गये हैं उसके सासरे वाले"। (शीला सास की बात बीच में ही काटते हुए बोली)
तभी सुरेश भी बोला; "माँ ! आप तो जानती हैं न । आजकल क्या क्या सुनने को मिल रहा है , ससुराल में बहुओं से कैसा - कैसा व्यवहार कर रहे हैं लोग । अगर ध्यान नहीं दिया तो वे हमें कमजोर समझेंगे और फिर"...
"ना बाबा ना ! जाइये जाकर तैयार हो जाइये आज के आज ही निक्की को वापस घर ले आइये, मेरा तो मन बैठा जा रहा है"। शीला बेचैन होकर बोली।
दोनों की बातें सुन सरला खिन्न मन चुपचाप बगीचे में जाकर खुरपी से मिट्टी खुरचने लगी...
तो सुरेश झुंझलाकर बोला, "माँ ! आज बहुत ठंड है, देखो न तबियत बिगड़ जायेगी।पहले ही निक्की की टेंशन कम है क्या ? क्या काम है यहाँ? मैं माली बुला देता हूँ उससे करवा लेना"।
नहीं माली की जरूरत नहीं मैं देख लुँगी , उखड़े स्वर में सरला बोली।
पर बेटे बहू दोनों जिद्द करने लगे तो उसने कहा ठीक है आती हूँ बस इस पौधे को जरा वहाँ रोप दूँ।
सुनकर दोनों बोले, "फिर से वहाँ?...
"माँजी आपने परसों ही तो इसे वहाँ से यहाँ लगाया, अब फिर वहीं क्यों "? शीला ने झुंझलाकर कहा तो सरला बोली;
"परसों कहाँ पूरे दस दिन हो गये अब वहीं वापस लगाती हूँ ...देखो पनप ही नहीं रहा ढंग से"!
"पर माँजी अभी तो ये जड़ पकड़ रहा होगा आप फिर उखाड़ेंगे तो कैसे पनपेगा"?
सुरेश भी बोला , "हाँ ! माँ ! वहीं रहने दो न उसे। कभी इधर कभी उधर कैसे पनपेगा बेचारा ! पता नहीं आप इसी के पीछे क्यों पड़ गयी हैं इसके साथ के बाकी पौधों पर फूल भी खिलने लग गये हैं,और ये बेचारा पनप तक नहीं पाया अभी" !
सुनकर सरला झुकी कमर लिए ही बगीचे से बाहर आयी और धीरे-धीरे बामुश्किल कमर सीधी करते हुए दोनों को देखकर बोली, "बात तो सही कही तुम दोनों ने...
कभी इधर -कभी उधर कैसे पनपेगा ये पौधा ? और देखो पनप भी तो नहीं रहा...है न" ।
"वही तो"..."दोनों एक साथ बोले"।
"बड़े समझदार हो फिर निक्की के साथ ऐसा क्यों कर रहे हो ? समझते क्यों नहीं कि बेटी भी तो ऐसे ही मायके के आँगन से उखाड़ कर ससुराल के आँगन में रोप दी जाती है। और फिर उसे भी पनपने में वक्त तो लगता ही है। पर तुम उसे झट से यहाँ बुला देते हो, बार बार फोन कर उनके घर के निजी मामले पूछ-पूछकर जबरदस्ती अपनी राय थोपते हो।
उसे वहाँ के माहौल के हिसाब से ढ़लने ही नहीं दे रहे हो बल्कि अपने ही हिसाब से चलाये जा रहे हो। क्यों" ? (तैश में बढ़ते स्वर को संयत करते हुए सरला आगे बोली)
"क्या हमारी निक्की पढ़ी-लिखी और समझदार नहीं है? क्या तुम्हें उसकी काबिलियत पर शक है?
क्यों उसकेऔरअपने मन में ससुराल को लेकर शक और नकारात्मकता भर रहे हो ?
माता-पिता हो तुम दोनों उसके, बिन सोचे-समझे तुम पर भरोसा कर जैसा तुम कहते हो वैसा कर और बोल रही है वो।
उसे वहाँ की परिस्थिति के अनुकूल सोच-समझकर व्यवहार करने की सीख दो न !
अपने मनसूबे और विचार उस पर मत थोपो"! कहते हुए सरला बरामदे में आकर वहीं रखे मोड़े में बैठ गयी।
सुरेश माँ के पास आकर समझाते हुए बोला, "माँ ! हम निक्की का भला ही तो चाहते हैं न ! उसके ससुराल वालों से थोड़ा होशियार होकर तो रहना ही होगा न ! देखा न आजकल जमाना कित्ता खराब है। ध्यान तो देना होगा न माँ! है न"...।
शीला ने भी हामी भरी, तो सरला बोली,
"जमाने को छोड़ो ! ये मत भूलो कि ससुराल निक्की का अपना घर है और वहाँ के लोग उसके अपने।अपनायेगी तभी सबका अपनापन भी पायेगी।
कही-कहाई सुनी-सुनाई सुनकर मन में ऐसे ही विचार आते हैं । और फिर तो सही भी गलत लगने लगता है।
हर बात के दो पहलू तो होते ही हैं। हो सकता है तुम दूसरा पहलू समझ ना पाये हों।
ऐसे ही राई का पहाड़ बनाते रहे न, तो बिटिया का घर बसने से पहले ही उजाड़ दोगे तुम।
फिर समझाते हुए बोली, "अरे बेटा! मैं ये नहीं कह रही कि उसे उसके हाल पर छोड़ दो। उसकी परवाह न करो!
पर जैसे पढ़ाई के दौरान परीक्षाएं दी न उसने,ठीक वैसे ही जीवन की परीक्षाएं भी देने दो उसे।
विश्वास रखो ! वह पहले जैसी ही इस परीक्षा में भी अब्बल आयेगी और जीना सीखेगी वह भी हिम्मत से....।
कहीं पिछड़ेगी तो हम सब हैं न।
जाँच-परखकर रिश्ता ढूँढा है न तुमने उसके लिए।अपने चयन और अपनी परवरिश पर भरोसा रखो !और थोड़ा संयम रखो ! बाकी सब परमात्मा की मर्जी"। कहकर वह अन्दर आ गयी।
थोड़ी देर बाद निक्की का फोन आया तो सुरेश ने माँ के सामने आकर ही फोन उठाया और बोला, "कोई बात नहीं बेटा ! आज नहीं आ सकते तो कोई नहीं जब समय मिले तब आना, हाँ अपनी सासूमाँ और बाकी घर वालों से राय मशबरा करके । ठीक है बेटा! अपना ख्याल रखना"।
सुनकर सरला ने संतोष की साँस ली ।
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टिप्पणियाँ
"हाँ ! माँ ! वहीं रहने दो न उसे। कभी इधर कभी उधर कैसे पनपेगा बेचारा ! पता नहीं आप इसी के पीछे क्यों पड़ गयी हैं इसके साथ के बाकी पौधों पर फूल भी खिलने लग गये हैं,और ये बेचारा पनप तक नहीं पाया अभी" !
जवाब देंहटाएंएक पौधे के माध्यम से गूढ़ संदेश..., प्रकृति कदम कदम पर सीख देती है ।बस समझने की जरूरत है । चिन्तनपरक सृजन सुधा जी ।
हृदयतल से धन्यवाद मीना जी!
हटाएंसस्नेह आभार।
सही मार्गदर्शन करती प्रेरक कहानी ।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद आ.संगीता जी!
हटाएंसादर आभार।
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(३०-१२ -२०२१) को
'मंज़िल दर मंज़िल'( चर्चा अंक-४२९४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सहृदय धन्यवाद प्रिय अनीता जी!मेरी रचना को चर्चा में सम्मिलित करने हेतु।
हटाएंसस्नेह आभार।
मार्गदर्शन करती सुंदर लघु-कथा।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद एवं आभार नैनवाल जी!
हटाएंसुंदर कथा सृजन
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद एवं आभार भारती जी!
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 30 दिसंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
हार्दिक धन्यवाद आ. रविन्द्र जी!मेरी रचना को मंच प्रदान करने हेतु।
हटाएंसादर आभार।
बेटी भी तो पेड़ के जैसेही मायके के आँगन से उखाड़ कर ससुराल के आँगन में रोप दी जाती है। और फिर उसे भी पनपने में वक्त तो लगता ही है। काश, यह बात हर माता पिता समझे और बेटी के घर मे अनावश्यक हस्तक्षेप न करे तो कई बेटियों को ससुराल में सामंजस्य बिठाने में आसानी हो।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर संदेश देती कहानी, सुधा दी।
जी, ज्योति जी! सही कहा आपने,आजकल बेटी के माता-पिता बहुत ही ज्यादा हस्तक्षेप कर रहे हैं परवाह के नाम पर...इसलिए ज्यादातर रिश्ते टूट रहे है...
हटाएंअत्यंत आभार एवं धन्यवाद रचना के मर्म को स्पष्ट करने हेतु।
सुन्दर प्रेरक सामयिक कथा
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद आ.विभा जी!
हटाएंसादर आभार।
वाह!सुधा जी ,पेड के माध्यम से गहरा संदेश देती ,सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद शुभा जी!
हटाएंसहृदय आभार।
प्रेरणा और चिंतन से परिपूर्ण, एक गूढ़ संदेश देती रचना ।
जवाब देंहटाएंइतनने सुंदर और प्रासंगिक लेखन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं सुधा जी ।
हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार जिज्ञासा जी!प्रोत्साहन हेतु।
हटाएंबहुत सुंदर प्रेरक प्रसंग।
जवाब देंहटाएंप्रतीक के रूप में एक पौधे के माध्यम से बहुत उपयोगी सलाह देती सुंदर कथा ।
अप्रतिम !
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार कुसुम जी!
हटाएंहार्दिक धन्यवाद आ.आलोक जी!
जवाब देंहटाएंसादर आभार।
प्रेरक कथा
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद एवं आभार सरिता जी!
हटाएंब्लॉग पर आपका स्वागत है।
सुंदर सीख देती कहानी
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आ. अनीता जी!
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