सम्भाले ना सम्भल रहे अब तूफानी जज़्बात

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  किसको कैसे बोलें बोलों, क्याअपने हालात  सम्भाले ना सम्भल रहे अब. तूफानी जज़्बात मजबूरी वश या भलपन में, सहे जो अत्याचार जख्म हरे हो कहते मन से ,  करो तो पुनर्विचार तन मन ताने देकर करते  साफ-साफ इनकार बोले अब न उठायेंगे  तेरे पुण्यों का भार तन्हाई भी ताना मारे. कहती छोड़ो साथ सम्भाले ना सम्भल रहे अब तूफानी जज़्बात सबकी सुन सुन थक कानों ने  भी सुनना है छोड़ा खुद की अनदेखी पे आँखें भी,  रूठ गई हैं थोड़ा ज़ुबां लड़खड़ा के बोली  अब मेरा भी क्या काम चुप्पी साधे, सब सह के तुम  कर लो जग में नाम चिपके बैठे पैर हैं देखो, जुड़के ऐंठे हाथ सम्भाले ना सम्भल रहे अब तूफानी जज़्बात रूह भी रहम की भीख माँगती,  दबी पुण्य के बोझ पुण्य भला क्यों बोझ हुआ ,  गर खोज सको तो खोज खुद की अनदेखी है यारों,  पापों का भी पाप ! तन उपहार मिला है प्रभु से,  इसे सहेजो आप ! खुद के लिए खड़े हों पहले, मन मंदिर साक्षात सम्भाले ना सम्भल रहे अब तूफानी जज़्बात ।।

तुम उसके जज्बातों की भी कद्र कभी करोगे

Indian woman
                        चित्र साभार गूगल से....


जो गुण नहीं था उसमें

हरदम देखा तुमने ,

हर कसौटी पर खरी उतरे

ये भी चाहा तुमने !

पर जो गुण हैं उसमें

उसको समझ सकोगे?

तुम उसके जज्बातों की

भी कद्र कभी करोगे   ?


बचपन की यादों से जिसने

समझौता कर डाला ।

और तुम्हारे ही सपनों को

सर आँखों रख पाला ।

पर उसके अपने ही मन से

उसको मिलने दोगे ?

तुम उसके जज्बातों की

भी कद्र कभी करोगे ?


सबको अपनाकर भी 

सबकी हो ना पायी ।

है बाहर की क्यों अपनों 

संग सदा परायी ?

थोड़ा सा सम्मान 

कभी उसको भी दोगे ?

तुम उसके जज्बातों की

भी कद्र कभी  करोगे ?


सुनकर तुमको सीख ही जाती

आने वाली पीढ़ी ।

सोच यही फिर बढ़ती जाती

हर पीढ़ी दर पीढ़ी ।

परिर्वतन की नव बेला में

खुद को कभी बदलोगे ?

 तुम उसके जज्बातों की

भी कद्र कभी करोगे ?


समाधिकार उसे दोगे तो

वह हद में रह लेगी ।

अनुसरणी सी घर-गृहस्थी की

बागडोर खुद लेगी ।

निज गृहस्थी के खातिर तुम भी

अपनी हद में रहोगे ?

तुम उसके जज्बातों की

भी कद्र कभी करोगे ?


   

टिप्पणियाँ

  1. तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आ.यशोदा जी मेरी रचना साझा करने हेतु।

    जवाब देंहटाएं
  2. हिंदी दिवस की शुभकामनाएं| सुन्दर सृजन|

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हार्दिक धन्यवाद आ.जोशी जी!
      आपको भी हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं।

      हटाएं
  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  4. जज़्बातों की कद्र वहीं हो सकती है कब ये न समझा जाये कि ये घर गृहस्थी चलानाकेवल एक की ही ज़िम्मेदारी है ।
    सुंदर भावपूर्ण रचना ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तहेदिल से धन्यवाद आ.संगीता जी!
      सादर आभार।

      हटाएं
  5. जो गुण नहीं था उसमें

    हरदम देखा तुमने

    हर कसौटी पर खरी उतरे

    ये भी चाहा तुमने

    पर जो गुण हैं उसमें

    उसको समझ सकोगे?

    तुम उसके जज्बातों की

    भी कद्र कभी करोगे ?
    .....बहुत सटीक रचना, अवगुण को गिनाते वक्त अगर इंसान सामने वाले का एक भी गुण स्मरण कर ले तो जो रिश्तों में दूरियाँ या कड़वाहट होती हैं,वो कभी हों ही न।सुंदर रचना ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तहेदिल से धन्यवाद जिज्ञासा जी!
      सस्नेह आभार।

      हटाएं
  6. उन बेकद्रों को क्या खबर कि कद्र करना क्या चीज है । कभी जैसे को तैसा करके भी देखा जा सकता है । मर्मस्पर्शी विषय पर प्रभावी लेखन ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तहेदिल से धन्यवाद आ.अमृता जी!
      सादर आभार।

      हटाएं
  7. सुंदर और सार्थक संदेश देती यह कविता बहुत अच्छी है। बहुत-बहुत बढ़िया सृजन है। आपको ढेरों शुभकामनाएँ। सादर।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हार्दिक धन्यवाद एवं आभार विरेन्द्र जी!

      हटाएं
  8. हार्दिक धन्यवाद आ.मुकेश जी!
    ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

    जवाब देंहटाएं
  9. सुधा दी, आज की आपकी इस कविता ने तो कमाल कर दिया। ऐसा लगा कि हर महिला के दिल की आवाज है ये! बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति दी। मैं ने ये रचना मेरे पैरिवारिक ग्रुप में भी शेयर की है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हृदयतल से धन्यवाद ज्योति जी रचना पसन्द करने एवं पारिवारिक ग्रुप मे शेयर करने हेतु।
      सस्नेह आभार।

      हटाएं
  10. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१८-०९-२०२१) को
    'ईश्वर के प्रांगण में '(चर्चा अंक-४१९१)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तहेदिल से धन्यवाद प्रिय अनीता जी! मेरी रचना को चर्चा मंच पर शेयर करने हेतु।
      सस्नेह आभार।

      हटाएं
  11. हार्दिक धन्यवाद जवं आभार मनोज जी!

    जवाब देंहटाएं
  12. वाह! सुधा जी बहुत ही सटीक लिखा आपने ,किसी से भी उसकी क्षमता के बाहर उम्मीद पालना और वैसे ही व्यवहार की उम्मीद रखना ये विसंगती जरूर है पर गृहणियों से ये उम्मीद कुछ ज्यादा ही लगाता है ये समाज, परिवार, पति बच्चे सब,पर उसके जज़्बातों को समझने का प्रयास कितने लोग करते हैं।
    अप्रतिम सृजन।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सुन्दर सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आ.कुसुम जी!

      हटाएं
  13. दिल और दिमाग दोनो को छूती रचना। बहुत सुंदर।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हार्दिक धन्यवाद एवं आभार आ.विश्वमोहन जी!

      हटाएं
  14. जो गुण नहीं था उसमें

    हरदम देखा तुमने

    हर कसौटी पर खरी उतरे

    ये भी चाहा तुमने

    पर जो गुण हैं उसमें

    उसको समझ सकोगे?



    सुंदर विचारोत्तेजक कविता...

    जवाब देंहटाएं
  15. हार्दिक धन्यवाद एवं आभार नैनवाल जी!

    जवाब देंहटाएं

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