तुम उसके जज्बातों की भी कद्र कभी करोगे
जो गुण नहीं था उसमें
हरदम देखा तुमने
हर कसौटी पर खरी उतरे
ये भी चाहा तुमने
पर जो गुण हैं उसमें
उसको समझ सकोगे?
तुम उसके जज्बातों की
भी कद्र कभी करोगे ?
बचपन की यादों से जिसने
समझौता कर डाला
और तुम्हारे ही सपनों को
सर आँखों रख पाला
पर उसके अपने ही मन से
उसको मिलने दोगे ?
तुम उसके जज्बातों की
भी कद्र कभी करोगे ?
सबको अपनाकर भी
सबकी हो ना पायी
है बाहर की क्यों अपनों
संग सदा परायी
थोड़ा सा सम्मान
कभी उसको भी दोगे ?
तुम उसके जज्बातों की
भी कद्र कभी करोगे ?
सुनकर तुमको सीख ही जाती
आने वाली पीढ़ी
सोच यही फिर बढ़ती जाती
हर पीढ़ी दर पीढ़ी
परिर्वतन की नव बेला में
खुद को कभी बदलोगे
तुम उसके जज्बातों की
भी कद्र कभी करोगे ?
समाधिकार उसे दोगे तो
वह हद में रह लेगी
अनुसरणी सी घर-गृहस्थी की
बागडोर खुद लेगी
निज गृहस्थी के खातिर तुम भी
अपनी हद में रहोगे ?
तुम उसके जज्बातों की
भी कद्र कभी करोगे ?
टिप्पणियाँ
सुंदर भावपूर्ण रचना ।
हरदम देखा तुमने
हर कसौटी पर खरी उतरे
ये भी चाहा तुमने
पर जो गुण हैं उसमें
उसको समझ सकोगे?
तुम उसके जज्बातों की
भी कद्र कभी करोगे ?
.....बहुत सटीक रचना, अवगुण को गिनाते वक्त अगर इंसान सामने वाले का एक भी गुण स्मरण कर ले तो जो रिश्तों में दूरियाँ या कड़वाहट होती हैं,वो कभी हों ही न।सुंदर रचना ।
आपको भी हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं।
सादर आभार।
सस्नेह आभार।
सादर आभार।
ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१८-०९-२०२१) को
'ईश्वर के प्रांगण में '(चर्चा अंक-४१९१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सस्नेह आभार।
सस्नेह आभार।
अप्रतिम सृजन।
हरदम देखा तुमने
हर कसौटी पर खरी उतरे
ये भी चाहा तुमने
पर जो गुण हैं उसमें
उसको समझ सकोगे?
सुंदर विचारोत्तेजक कविता...