अक्टूबर के अनाहूत अभ्र
हे अक्टूबर के अनाहूत अभ्र !
ये अल्हड़ आवारगी क्यों ?
प्रौढ़ पावस की छोड़ वयस्कता
चिंघाड़ों सी गरजन क्यों ?
गरिमा भूल रहे क्यों अपनी,
डाले आसमान में डेरा ।
राह शरद की रोके बैठे,
जैसे सिंहासन बस तेरा ।
शरद प्रतीक्षारत देहलीज पे
धरणी लज्जित हो बोली,
झटपट बरसों बचा-खुचा सब
अब खाली कर दो झोली !
शरदचन्द्र पे लगे खोट से
चन्द्रप्रभा का कर विलोप
अति करते क्यों ऐसे जलधर !
झेल सकोगे शरद प्रकोप ?
जाओ अब आसमां छोड़ो !
निरभ्र शरद आने दो!
शरदचंद्र की धवल ज्योत्सना
धरती को अब पाने दो !
टिप्पणियाँ
पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11-10-22} को "डाकिया डाक लाया"(चर्चा अंक-4578) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत सुंदर सृजन ।
सादर आभार एवं धन्यवाद आपका🙏🙏
सुन्दर रचना
वाह! सुधा जी बहुत ही सुंदर अभिनव प्रस्तुति उलाहना और फटकार दोनों काव्यात्मक लय में , बहुत सुंदर सृजन, काव्यागत सौंदर्य के साथ।
करवा चौथ की हार्दिक शुभकामनाएं 🌷🌷🌷
सब ओर गड़बड़ झाला है.
बेमौसम बरसात हो रही है फिर शरद ऋतु में प्रचंड गर्मी पड़ेगी और वैशाख-जेठ में रजाइयां ओढ़नी पड़ेंगी.
शरद प्रतीक्षारत देहलीज पे
धरणी लज्जित हो बोली,
अब लाज कहां है इसीलिए तो प्रकृति को भी ठीक व्यवहार न रहा। हमें भी वैसा ही वापस मिल रहा है।
हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आपका ।
सस्नेह आभार ।
greetings from malaysia
let's be friend