जन्म 'एक और गरीब का
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मौसमानकूल कुछ फूल चाहे अनचाहे,
सिसकते सुबकते कुछ अलसाये से ।
जिनके स्पर्श से जाग उठती है ,
उनकी अभावग्रस्त मरियल सी आत्मा ।
आशा की बुझती चिनगारी को
फूँकनी से फूँक मार-मारकर,
जलाते हैं हिम्मत की लौ ।
पीठ पर चिपके पेट और कंकाल सी देह को
उठाकर धोती के चिथड़े से कमर कसकर
सींचने लगते हैं ये अपनी बगिया ।
सिसकियाँ फिर किलकारियों में बदलती हैं !
और मुस्कराने लगती है इनकी कुटिया !
फिर इन्हीं का सहारा लिए बढने लगती है
इनकी भी वंशबेल।
हर माँ-बाप की तरह ये भी बुनते हैंं,
चन्द रंगीन सपने !
और फिर अपनी औकात से बढ़कर,
केंचुए सा खिंचकर तैयार करते हैं,
अपने नौनिहाल के सुनहरे भविष्य का बस्ता !
उसे शिक्षित और स्वावलंबी बनाने हेतु
भेजते हैं अपनी ही तरह
घिसते-पिटते सरकारी विद्यालय में !
बड़ा होता बच्चा मास्टर जी के
सवालों के जबाब ढूँढ़ता है,
अपने जन्मदाता की खाँसती उखड़ती साँसों में !
बचपन का चोला, किताबों भरे बस्ते में
लपेटकर झाड़ी में छुपा,
समझदारी का लिबास ओढ़े
समय से पहले सयाना बनकर
ढ़ूँढ़ता है रास्ता जनरल स्टोर जैसी दुकानों का,
और बन जाता है विद्यार्थी से डिलीवरी ब्वॉय
ताकि अपने बीमार, लाचार जन्मदाता के
काँपते जर्जर कन्धों का बोझ
कुछ हल्का कर सके !
ऐसा नहीं कि वो उन्नति नहीं करता,
करता है न,
डिलीवरी ब्वॉय के छोटे-मोटे आइटम
उठाना छोड़ बड़े-बड़े भंडारगृहों में
भारी-भारी अनाज की बोरियों से लेकर
रेलवे स्टेशनों में अमीरों के
भारी-भरकम सूटकेसों तक ।
ये अपने बड़े होकर उन्नति करने का
पर्याप्त प्रमाण देता है ।
जिन्दगी अपनी रफ्तार से आगे खिसकती है,
और ये सारा दिन बोझ तले दबी
टेढ़ी हुई कमर को जबरन सीधा कर
पानी के छीटों से चेहरे की थकान और बेबसी
को धो-पोंछकर खुशी के मुखोटे पे
बड़ी सी मुस्कराहट सजा हर साँझ पहुँचता है ,
सिटी हॉस्पिटल जिन्दगी और मौत से लड़ते
अपने जन्मदाता से मिलने ।
जहाँ जीवन भर की भुखमरी, रक्ताल्पता और
कुपोषण के चलते असाध्य से बन बैठे हैंं
उनके लिए साधारण से क्षयरोग या कुछ और भी ।
अपने लल्लन को देख चमक उठती हैं
बुझी-बुझी आँखें हर साँझ !
और फिर एक दिन पड़ौसी मरीज से सुनते है कि,
"बड़ा समझदार लागे थारा लल्ला!
म्हारी छोरी संग ब्याह लो इने ! चैन से मर पावेंगे तब"
बस अपनी जिम्मेदारी को प्रणयबंधन में बाँध
जीने की वजह देकर
उखड़ती साँसों से मुक्त होती है
इधर एक जर्जर देह !
और उधर फिर खिलता है एक और
अलसाया सा पुष्प गरीब की बगिया में
अपने इतिहास को दोहराने हेतु
फिर-फिर होता है
जन्म 'एक और गरीब का ' ।।
चित्र , साभार pixabay से.
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टिप्पणियाँ
कलेजा चाक कर देने वाली हक़ीक़त बयां कर दी है सुधा जी आपने ।
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद आ.माथुर जी!सराहनासम्पन प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन करने हेतु...।
हटाएंसुधा जी मैं निशब्द हूं! मेरी लेखनी के पास सांत्वना के शब्द तक नहीं!
जवाब देंहटाएंनिशब्द!
निशब्द!!
हृदयतल से धन्यवाद कुसुम जी सराहनीय प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन करने हेतु।
हटाएंउत्कृष्ट रचना। क्या खूब लिखा है, उपरोक्त मोतियों के सामने हमारे शब्दों का कोई अर्थ नही। साधुवाद की आपने इस विषय के ऊपर लिखा ही नही अपितु सजीव चित्रण किया।धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार भाई!
हटाएंवाह!सुधा जी ,नि:शब्द कर दिया आपकी लेखनी ने । नतमस्तक हूँ आपकी कलम के आगे 🙏🏼
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद आ.शुभा जी!
हटाएंमर्मस्पर्शी भाव। अच्छा होगा कि हम उनके सपनों को डूबने न दें।
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद एवं आभार सर!
हटाएंसुधा दी, गरीबी का बहुत ही मार्मिक और दिल को छूता वर्णन किया है आपने।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद ज्योति जी!
हटाएंसस्नेह आभार।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 22 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आ.यशोदा जी मेरी रचना को सांध्य दैनिक मुखरित मौन के मंच पर साझा करने हेतु...।
हटाएंबहुत मार्मिक ह्रदय स्पर्शी रचना |
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद आ. आलोक जी!
हटाएंमार्मिक ... पढने के बाद कितनी ही देर तक सोचता रहा ... क्या ये सच है समाज का ... और अगर है तो क्यों है ... किसी के भी सपनों को परवाज़ न मिले ... ये तो अच्छा नहीं ...
जवाब देंहटाएंसपनों का पूरा हिओना जरूरी होना चाहिए समाज में ... ताकि सपने देखने की प्रथा बनी रहे ... बहु सटीक, सार्थक और सोचने को मजबूर करती रचना ...
हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार नासवा जी!
हटाएंसमाज के एक वर्ग का सही चित्रण करती मर्मस्पर्शी रचना,सपने देखना और उन्हें पूरा ना होने का मलाल लिए मर जाना फिर भी सपने देखने की हिम्मत करना ये उनकी जिजीविषा को उजागर करता है और हजारों में से कोई एक जब सपने पुरे कर चमकता सितारा बनता है तो फिर से कई आखों को सपने देखने की हिम्मत दे जाता है,हमेशा की तरह लाजबाब सृजन सुधा जी,सादर नमन
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद कामिनी जी!रचना का सार एवं मंतव्य स्पष्ट करती अनमोल प्रतिक्रिया हेतु....।
हटाएंसादर आभार।
बस अपनी जिम्मेदारी को प्रणयबंधन में बाँध
जवाब देंहटाएंजीने की वजह देकर
उखड़ती साँसों से मुक्त होती है
इधर एक जर्जर देह !....
और उधर फिर खिलता है एक और
अलसाया सा पुष्प गरीब की बगिया में.....
अपने इतिहास को दोहराने हेतु
फिर-फिर होता है
जन्म 'एक और गरीब का ' बहुत ही हृदय स्पर्शी और ग़रीबी का सटीक चित्रण करती सुंदर कृति..। मैंने भी ऐसे ही विषय पर एक कविता लिखने की कोशिश की है,समय मिले तो ब्लॉग पर निगाह डालें..सादर शुभकामना सहित जिज्ञासा सिंह..।
जी!जिज्ञासा जी!अत्यंत आभार एवं धन्यवाद आपका।
हटाएंवाह🌻
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार एवं धन्यवाद शिवम जी!
हटाएंपर्त दर पर्त उधेड़ कर रख दिया है इस अभिशाप का ... मर्माघाती ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार एवं धन्यवाद आ.अमृता जी!
हटाएंग़रीब जीवन का सजीव चित्रण बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। सार्थक सृजन के लिए आप बधाई की पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद एवं आभार विरेन्द्र जी!
हटाएंसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद आ.जोशी जी!
हटाएंसादर आभार।
बहुत ही सुन्दर और सार्थक कविता शब्दों में अपनापन सा लगता है ,..
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद एवं आभार संजय जी!
हटाएं🙏नववर्ष 2021 आपको सपरिवार शुभऔर मंगलमय हो 🙏
जवाब देंहटाएंओह, यूँ ही बढ़ती रहती संख्या गरीब की । मार्मिक अभव्यक्ति ।।
जवाब देंहटाएं