जरा अलग सा अबकी मैंने राखी पर्व मनाया
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जरा अलग सा अबकी मैने राखी पर्व मनाया ।
रौली अक्षत लेकर अपने माथे तिलक लगाया ।।
एक हाथ से राखी लेकर दूजे पर जब बाँधी !
लगी पूछने खुद ही खुद से क्यों सीमाएं लाँघी ?
भाई बहन का पर्व है राखी, क्यों अब इसे भुलाया ?
रक्षा सूत्र को ऐसे खुद से खुद को क्यों पहनाया ?
दो मत दो रूपों में मैं थी अपने पर ही भारी !
मतभेदों की झड़ी लगी मुझ पे ही बारी-बारी।
तिरछी नजर व्यंगबाण धर मुझसे ही मैं बोली !
सीमा पर तैनात है तू, जो भय था लगे ना गोली ?
रक्षा सूत्र बाँध स्वयं की किससे रक्षा करती ?
ऐसी भी कुछ खास नहीं ,जो बुरी नजर से डरती !
ठंडी गहरी साँस भरी फिर शाँतचित्त कह पायी !
मुझसे ही मेरी रक्षा का बंधन आज मनायी !
मैं ही हूँ दुश्मन अपनी अब जाकर मैंने जाना ।
अपने ही अंतर्मन रिपु को अच्छे से पहचाना ।
राग द्वेष, ईर्ष्या मद मत्सर ये दुश्मन क्या कम थे !
मोह चाह महत्वाकांक्षा के अपने ही गम थे ।
तिस पर मन तू भी बँट-छँट के यूँ विपरीत खड़ा है ।
वक्त-बेबक्त बात-बेबात अटकलें लिए पड़ा है
शक,संशय, भय, चिंता और निराशा साथ सदा से।
देता रहता बिन माँगे भी, हक से, बड़ी अदा से ।।
रक्षा सूत्र धारण कर मैंने अब ये वचन लिया है ।
नकारात्मकता टिक न सके, अवचेतन दृढ़ किया है।
निराशावादी भावों से निज रक्षा स्वयं करुँगी ।
स्वीकार करूंगी होनी को, अब विद्यमान रहूँगी ।।
पढ़िए रक्षाबंधन पर कहानी
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टिप्पणियाँ
वाह !!!! काश ऐसा संकल्प सब ले सकें ।सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.. लाज़वाब कविता दी।
जवाब देंहटाएंसस्नेह प्रणाम।
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सादर
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १ सितंबर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
वाह
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा संकल्प
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना
शुभकामनाएं
मैं ही हूँ दुश्मन अपनी अब जाकर मैंने जाना ।
जवाब देंहटाएंअपने ही अंतर्मन रिपु को अच्छे से पहचाना
राग द्वेष, ईर्ष्या मद मत्सर ये दुश्मन क्या कम थे
मोह चाह महत्वाकांक्षा के अपने ही गम थे ।
बहुत सुंदर भाव,स्वयं को समझ लिया तो जग जीत लिया।
बेहतरीन
जवाब देंहटाएंबहुत ही सही निर्णय !
जवाब देंहटाएंनारी अपनी रक्षा करने में स्वयं समर्थ है.
बेहद खूबसूरत !
जवाब देंहटाएंठंडी गहरी साँस भरी फिर शाँतचित्त कह पायी !
जवाब देंहटाएंमुझसे ही मेरी रक्षा का बंधन आज मनायी !
मैं ही हूँ दुश्मन अपनी अब जाकर मैंने जाना ।
अपने ही अंतर्मन रिपु को अच्छे से पहचाना ।
बेहतरीन कृति
निराशावादी भावों से निज रक्षा स्वयं करुँगी ।
जवाब देंहटाएंस्वीकार करूंगी होनी को, अब विद्यमान रहूँगी ।।
वा...व्व...सुधा दी! बहुत ही अनूठी कल्पना!
सच!
जवाब देंहटाएंत्योहारों को मानने की यही सम्यक दृष्टि होनी चाहिए!सकारात्मक भाव की अति सुंदर रचना।
अलग अंदाज़ में ... अच्छी रचना है बहुत ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना,खुद से ख़ुद की पहचान,
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