मुस्कराया जब वो पाटल खिलखिलाकर
शर्द ठिठुरन, ओस, कोहरा सब भुलाकर
मुस्कराया जब वो पाटल खिलखिलाकर ।
शर्म से रवि लाल, छोड़ी शुभ्र चादर,
रश्मियां दौड़ी धरा , आलस भगाकर ।
छोड़ ओढ़न फिर धरावासी जो जागे,
शीतवाहक भागते तब दुम-दबाके ।
क्रुद्ध हारे शिशिर ने पाटल को देखा,
पूस पतझड़ी प्रवात, जम के फेंका ।
सिंहर कर भी संत सा वो मुस्कुराया,
अंक ले मारुत को वासित भी बनाया।
बिखरी पड़ी हर पंखुड़ी थी मुस्कराती,
ओस कण में घुल मधुर आसव बनाती ।
सत्व इसका सृष्टि को था बहुत भाया,
हो प्रफुल्लित 'पुष्प का राजा' बनाया ।
टिप्पणियाँ
हो प्रफुल्लित 'पुष्प का राजा' बनाया ।
बहुत खूब, फुलों के राजा का इतना प्यारा वर्णन,मन मोह लिया आपने सुधा जी 🙏
आपकी अनमोल प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ ।
मुस्कराया जब वो पाटल खिलखिलाकर ।
सुंदर
सादर
हमारी ठण्ड में कंपकंपी छूट रही है लेकिन फूलों का राजा कांपने के बजाय मुस्कुरा रहा है, खिलखिला रहा है.
प्रकृति हर मौसम में स्वयं को ढाल लेती है ।
हम मनुष्य ही हर तरह के मौसम को अपने अनुरूप बनाना चाहते हैं ।
वैसे बहुत सर्दी है भई ।
सवार इतनी सुंदर मोहक कविता मन मोह गई ।
लाजवाब शब्द विन्यास । बधाई सखी ।