सिर्फ गृहिणी !
भावना के बहुत समझाने पर भी जब वह न मानी तो थक -हारकर उसने कहा , "अमित ! ले जाने देते हैं इसे आज गुड़िया स्कूल में, बाद में टीचर समझा बुझाकर बैग में रखवा देंगी । ऐसे रोज - रोज रुलाकर भेजना अच्छा नहीं लगता। है न अमित !
पर अमित ने तो जैसे उसे सुना ही नहीं । बड़े गुस्से में बेटी को झिंझोड़कर उससे गुड़िया छीनकर फेंक दी। डाँट-डपट कर रोती हुई बच्ची को स्कूल छोड़ने चला गया ।
बेटी को रोते हुए जाते देख भावना बहुत दुःखी हुयी , उसका मन किसी काम में नहीं लग रहा था । उसे आज अमित का व्यवहार भी बड़ा अजीब लगा, वह सोचने लगी कैसे पापा हैं अमित ? कैसे झिंझोड़ दिया हमारी नन्हीं सी बच्ची को !
सोचते सोचते वह अपने बचपन की यादों में खो गयी । अपने पापा को याद करने लगी कि एक मेरे पापा थे, मेरे प्यारे पापा ! उसकी आँखें छलछला गयी उस दिन को याद करके, जब उसने बचपन में कान की एक बाली गुम हो जाने पर बिना बाली स्कूल न जाने की जिद्द ठान ली थी। मम्मी तो गुस्सा कर रही थी पर पापा ने तो मुझे लेकर सुबह-सुबह गली भर की दुकाने खुलवा दी थी। क्योंकि इतनी सुबह दुकानें खुली जो नहीं थी।
बहुत कोशिश के बाद जब एक दुकान में बाली मिली तब तक मुझे स्कूल छोड़ने वाला रिक्शा जा चुका था । फिर दूसरा रिक्शा करवाकर पापा मुझे लेकर स्कूल पहुंचे तो बहुत देर हो चुकी थी । टीचर ने देर से आने का कारण पूछा तो कैसे पापा ने सारी गलती अपने ऊपर ले ली , ताकि मुझे डाँट न पडे़ । मेरे पापा !
तभी डोरबेल की आवाज सुन दरवाजा खोला तो सामने अमित को देखकर पूछा , अमित !"चुप हो गयी थी वह ? अभी भी रो तो नहीं रही थी न ? फिर समझाते हुए बोली, "अमित आपको उसे डाँटना नहीं चाहिए था । प्यार से समझाते तो वह मान जाती"।
सुनकर अमित झल्लाते हुए बोला, "तो ले जाने दें उसे गुड़िया स्कूल में ?
नासमझी करेगी तो डाँट तो पड़ेगी ही । बहुत जिद्दी हो रही है आजकल" ।
"अमित वह बच्ची है थोड़ी बहुत जिद्द तो करेगी ही ।
हमें उसे प्यार से समझाना होगा" ।
"हाँ तुम्हारे इसी प्यार में तो बिगड़ रही है वो" !
"अरे ! ये क्या बात हुई भला" ? भावना बात को मजाक में टालने की कोशिश में मुस्कुरा दी ।
परन्तु अमित बहुत चिढ़कर बोला, "हाँ ! और सख्ती से लूंगा उसे, वरना वह भी कुछ नहीं कर पायेगी अपनी जिन्दगी में । सिर्फ गृहणी बन कर रह जायेगी तुम्हारी तरह"।
सुनकर भावना सन्न सी रह गयी फिर बात को क्लियर करने के लिए पूछ ही बैठी , "क्या ? क्या कहा आपने ? सिर्फ गृहणी ! ये आप कह रहे हैं अमित ? आपको याद तो हैं न कि आपके कहने पर ही मैंने अपनी जॉब छोड़ी। आप चाहते थे कि हमारे बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए हम दोनों मेंं से एक का बच्चों के साथ होना जरूरी है।
और ये भी आपने ही कहा था न कि बच्चों की परवरिश पापा से बेहतर माँ ही कर सकती है, तो फिर आज ? आज मैं सिर्फ़ गृहिणी " ?
"ओह्हो भावना ! फिर बहस करने लगी तुम ?
तुमसे तो बात करना ही बेकार है । अब मैं तुम्हारी तरह घर बैठ तो नहीं जो फालतू की बहसबाजी में समय बर्बाद करूँ, और भी बहुत काम होते हैं मुझे", कहते हुए अमित वहाँ से चला गया ।
तुमसे तो बात करना ही बेकार है । अब मैं तुम्हारी तरह घर बैठ तो नहीं जो फालतू की बहसबाजी में समय बर्बाद करूँ, और भी बहुत काम होते हैं मुझे", कहते हुए अमित वहाँ से चला गया ।
उसके जाने के बाद उसके कहे एक-एक शब्द भावना के कानों में गूँज- गूँजकर उसके मन को आहत करने लगे ।
बड़ी मुश्किल से उसने खुद को सम्भाला और शान्त मन से सोचा तो आज उसे याद आया कि उसकी बड़ी बहन, माँ और सभी सहेलियाँ उसे इसी बात को समझाने के लिये कितनी कोशिश कर रहे थे उसे उस दिन जब उसने अपनी जॉब छोड़ने का फैसला लिया था ।
तब उसने किसी की नहीं सुनी थी क्योंकि वह भी मानती थी कि बच्चों के लिए माँ का साथ कितना जरूरी है ।
पर अब ! अब क्या ? अब मुझे जल्द ही कुछ सोचना होगा। कहीं बहुत देर ना हो जाय । उसने अपने ऑफिस की सहकर्मी जो उसकी दोस्त भी है से बात की तो पता चला कि वहाँ वैकेंसी हैं अप्लाई करने पर जल्द ही में उसे जॉब मिल गई ।
फिर एक दिन अमित ने देखा कि भावना बड़े तड़के घर के सारे काम निबटाकर तीन तीन टिफिन तैयार कर बड़ी हड़बड़ी में खुद भी तैयार हो रही है तो उसने पूछा
"भावना ! आज कहाँ की तैयारी है" ?
"जॉब" (भावना ने सपाट सा जबाब दिया)
"और भव्या" ?
"क्रैच (शिशुपालन गृह) में रहेगी , मैंने बात कर ली है"।
"पर हमने तो कुछ और डिसाइड किया था न । ओह ! तो तुमने मेरी बात से नाराज होकर...
"नाराज नहीं शुक्रगुज़ार हूँ तुम्हारी अमित कि तुमने समय पर अपना रूप दिखाकर मेरी आँखें खोल दी" (अमित की बात बीच में ही काटते हुए वह बोली और भव्या को लेकर निकल पड़ी ) ।
टिप्पणियाँ
बढ़िया लघु कथा ।
इन्हीं बातों से आहत होकर भावना जैसी कितनी औरतों ने भी नौकरी को ही अहमियत दी। और आज तो लड़कीयों ने निर्णय ही लेलिया है कि उन्हें घर सम्हालना ही नहीं है। जिस कारण से घर बिखर रहे हैं।ना जाने ये समाज गृहणियों के महत्व को कब समझेंगा।
बहुत ही सुन्दर लघुकथा सुधा जी 🙏
हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आपकी उत्साहवर्धन करती अनमोल प्रतिक्रिया हेतु ।
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १० जून २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
मेरी रचना को पाँच लिंकों के आनंद मंच पर स्थान देने हेतु ।
सस्नेह आभार।
आपने इस कहानी के माध्यम से अधिकांश शिक्षित महिलाओं की पीड़ा को उजागर किया है और अपना महत्व जताना कितना जरूरी है यह भी समझाया है।
भावना जैसे किरदार बालमन को समझते हैं और बच्चों के हित के लिए जागरूकता का परिचय देते हैं.
मेरी बेटी मानसिक मंद बुद्धि के बच्चों का स्कूल चलाती हैं, प्रायः बच्चे इसी तरह की मानसिक प्रताड़ना के शिकार होते हैं.
यह कहानी नहीं मर्म को छूती समाज की सच्चाई है औरअर्थपूर्ण भी
अच्छे विषय पर लिखने के लिए बधाई
सादर
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत गहन कथा सुधा जी।
और इनकी शिक्षा भी उन्हे स्पेशल बच्चों के साथ हो पर क ई ऐसे मानसिक बीमार समाज में बीमारी फैला रहे हैं और किसी को उनकी इस मानसिक बीमारी का भान भी नहीं ।
आपकी बेटी विशिष्ट बच्चों के स्कूल में पढ़ाती हैं बहुत ही बड़ा एवं मुश्किल काम है ।
भगवान उन्हें संबल दे ऐसे बच्चों की मदद करने का।
अत्यंत आभार एवं धन्यवाद आपका सारगर्भित प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता प्रदान करने हेतु ।
हृदयतल से धन्यवाद एवं आभारआपका
सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु ।
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका ।
कहानी में बहुत गहरी वास्तविकता को बाखूबी लिखा है ...
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका ।
हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आपका ।
जो उम्र भर सब कुछ होते हुए भी अभाव में जीती हैं....जी प्रयास करुँगी उनकी व्यथा कथा लिख सकूँ....अत्यंत आभार एवं धन्यवाद आपका।
भावना ने अपने आत्मसम्मान हेतु बिल्कुल सही कदम उठाया। बहुत सुंदर और विचारणीय लघुकथा।
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका ।