कबूतर की दादागिरी
एक कबूतर जमा रहा है,
बिखरे दानों पर अधिकार ।
शेष कबूतर दूर हो रहे,
उसकी दादागिरी से हार ।
गोल घूमता गुटर-गुटर कर ,
गुस्से से फूला जाता ।
एक-एक के पीछे पड़कर,
उड़ा सभी को दम पाता ।
श्वेत कबूतर तो कुष्ठी से,
हैं अछूत इसके आगे ।
देख दूर से इसके तेवर,
बेचारे डरकर भागे ।
बैठ मुंडेरी तिरछी नजर से,
सबकी बैंड बजाता वो ।
सुबह से पड़ा दाना छत पर,
पूरे दिन फिर खाता वो ।
समझ ना आता डर क्यों उसका,
इतना माने पूरा दल ?
मिलकर सब ही उसे भगाने,
क्यों न लगाते अपना बल ?
किस्सों में पढ़ते हैं हम जो,
क्या ये सच में है सरदार ?
या कोई बागी नेता ये,
बना रहा अपनी सरकार ?
नील गगन के पंछी भी क्या,
झेलते होंगे सियासी मार ?
इन उन्मुक्त उड़ानों का क्या,
भरते होंगे ये कर भार ?
टिप्पणियाँ
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१५ -१०-२०२१) को
'जन नायक श्री राम'(चर्चा अंक-४२१८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
इतना माने पूरा दल ?
मिलकर सब ही उसे भगाने,
क्यों न लगाते अपना बल ?
यह तो कबूतर की कहानी है
पर हकीकत में हम इंसानों मैं भी ऐसा ही हो रहा है!
हमारी और पक्षियों की दशा कुछ मामलों में एक समान ही है!
बेहतरीन अभिव्यक्ति
हाँ सियासत तो क्या होती होगी पर दबदबा बहुत है उसका।
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।
सस्नेह आभार।
हृदयतल से धन्यवाद विमर्श हेतु।
नमन आपकी लेखनी को पक्षियों में भी नेताशाही के गुण पनप रहे हैं।
बहुत सुंदर सृजन।
सराहनीय प्रतिक्रिया से प्रोत्साहित करने हेतु तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।
यथार्थ चित्रण सुंदर शब्दों में बांधा है ।
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका उत्साहवर्धन हेतु।
हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आ.संगीता जी!आपकी सराहना पाकर अति प्रोत्साहित हूँ।