पावन दाम्पत्य निभाने दो
अब नहीं प्रेम तो जाने दो
जैसा जी चाहे जी लो तुम
कर्तव्य मुझे तो निभाने दो
अब नहीं प्रेम तो जाने दो
हमराही बन के जीवन में
चलना था साथ यहाँ मिलके
काँटों में खिले कुछ पुष्पों को
चुनना था साथ यहाँ मिलके
राहों में बिखरे काँटों को
साथी मुझको तो उठाने दो...
अब नहीं प्रेम तो जाने दो...
ये फूल जो अपनी बगिया में
प्रभु के आशीष से पाये हैं
नन्हें प्यारे मासूम बहुत
दोनों के मन को भाये हैं
दोनों की जरुरत है इनको
इनका दायित्व निभाने दो
अब नहीं प्रेम तो जाने दो....
चंद दिनों के साथ में साथी
कुछ पल तो खुशी के बिताये हैं
आज की मेरी इन कमियों में
वो दिन भी तुमने भुलायें हैं
यादों को सहेज लूँ निज दिल में
अनबन के पल बिसराने दों
अब नहीं प्रेम तो जाने दो....
छोटी - छोटी उलझन में यूँ
परिवार छोड़ना उचित नहीं
अनबन को सर माथे रखकर
घर-बार तोड़ना उचित नहीं
इक - दूजे के पूरक बनकर
पावन दाम्पत्य निभाने दो
अब नहीं प्रेम तो जाने दो......
चित्र साभार, गूगल से....
टिप्पणियाँ
छोटी - छोटी उलझन में यूँ
परिवार छोड़ना उचित नहीं
अनबन को सर माथे रखकर
घर-बार तोड़ना उचित नहीं
इक - दूजे के पूरक बनकर
पावन दाम्पत्य निभाने दो
अब नहीं प्रेम तो जाने दो...बहुत सुंदर भाव,सच ही तो कहा आपने छोटी छोटी घटनाएं तो जीवन में होती रहती है, इन्हें नजरंदाज करके ही जीवन संतुलित होता है,वर्ण तो हर घर विज्ञान का शिकार हो जाय।सुंदर रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।
सारगर्भित प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन करने हेतु अत्यंत आभार आपका।
परिवार छोड़ना उचित नहीं
अनबन को सर माथे रखकर
घर-बार तोड़ना उचित नहीं
इक - दूजे के पूरक बनकर
पावन दाम्पत्य निभाने दो..
बिल्कुल सही कहा सुधा दी कि छोटी छोटी बातों के लिए घर संसार तोड़ा नही जाता। बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
एक सवाल - बिखरते रिश्ते को समेटने की और टूटते परिवार को जोड़ने की, इस तरह की कोशिश और इस तरह के समझौते, अधिकतर पत्नी ही क्यों करती है?
सराहनासम्पन्न प्रतिक्रिया एवं रचना पर विमर्श हेतु हृदयतल से धन्यवाद आपका।
सादर आभार।
प्रेम नहीं तो जाने दो .... ये स्थिति कठिन तो होती होगी न ?
सोचने पर मजबूर करती सुंदर रचना ।
इस अपरिभाषित प्रेम को समझना इतना आसान भी कहाँ है....
अत्यंत आभार एवं धन्यवाद आपका।
सच भी है ... प्रेम न हो तो बंधन बेमानी है ...
फूल न खिले तो क्या फायदा ...
अच्छी रचना ...
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मी तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता
इसलिए जरूरी है समझना-
अपनी-अपनी तृष्णाओं के रेगिस्तान में
भटकते ताउम्र इच्छाओं के बियाबान में
जो दामन में नहीं अपने, उस भुलाकर
है जो खुश रहे जीवन से मिले अनुदान में।
----
प्रिय सुधा जी,
संबंधों में उपजी असंतुष्टि,मनमुताबिक,मनलायक पाने की और जीने की लालसा ने रिश्तों की गरिमा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। संयुक्त परिवार से एकल परिवार और अब एकल परिवार का अस्तित्व भी प्रश्नों के भँवर में होना चिंतनीय है।
समाज में वैवाहिक संबंध विच्छेद के बढ़ते प्रचलन
का समाधान तलाशती आपकी यह रचना बेहद सारगर्भित
संदेश दे रही है।
सस्नेह।
भटकते ताउम्र इच्छाओं के बियाबान में
जो दामन में नहीं अपने, उस भुलाकर
है जो खुश रहे जीवन से मिले अनुदान में।
बहुत ही सुन्दर सार्थक पंक्तियों से रचना को पूर्णता देने व सराहनासम्पन्न प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन के हेतु तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी!
सहजता कविता को प्रभावी बनाने में कामयाब है !
कुछ पल तो खुशी के बिताये हैं
आज की मेरी इन कमियों में
वो दिन भी तुमने भुलायें हैं
यादों को सहेज लूँ निज दिल में
अनबन के पल बिसराने दों
अब नहीं प्रेम तो जाने दो....
बहुत सुन्दर... रचना.... कई बार हम लोग थोड़ी सी अनबन के चलते बरसों का प्रेम भूल जाते हैं जबकि होना उल्टा चाहिए...प्रेम को याद रखा जाना चाहिए....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(०१-०८-२०२१) को
'गोष्ठी '(चर्चा अंक-४१४३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सादर आभार।
जैसा जी चाहे जी लो तुम
कर्तव्य मुझे तो निभाने दो
अब नहीं प्रेम तो जाने दो
हर एक पंक्ति बहुत ही बेहतरीन और सरहनीय है और रचना का भाव तो बहुत ही सरहनीय है!
आपके इस भाव की तरीफ शब्दों बयां कर पाना मुश्किल है! 👍👍👍👍👍🤘👌
पावन दाम्पत्य निभाने दो
अब नहीं प्रेम तो जाने दो.....
वाह !! बहुत सुन्दर और हृदयस्पर्शी भावासिक्त सृजन ।
लाजवाब सृजन दी 👌
सादर
सस्नेह आभार।
आजकल रिश्ते टूटने में समय नहीं लग रहा आपसी प्रेम में जरा सी कमी पर रिश्ता ही दाँव पर लगा दे रहे हैं नव दम्पति... बच्चों के विषय में भी नहीं सोचते...समर्पण और समझबूझ इनके अहम के आगे कोई मायने नहीं रखते...।
गृहस्थी और दाम्पत्य जैसे पावन बंधन का महत्व नहीं रह गया है
सही कहा आपने हमेशा इंसान अपने लिए नहीं जी सकता।
सारगर्भित प्रतिक्रिया से रचना को सार्थकता प्रदान करने हेतु अत्यंत आभार आपका।