तमाशा देखो दाना फेंको
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सुबह सुबह सीमा ने हमेशा की तरह छत पर चिड़ियों के लिए दाना डाला और वहीं कोने में आसन बिछाकर योग करने बैठी तो देखा कि एक कबूतर बाकी कबूतरों को दाने के आस-पास भी नहीं फटकने दे रहा ....
कुछ कबूतर उससे दाना लेने की फिराक में लड़ रहे हैं तो कुछ आकर सीमा के आसन के इर्दगिर्द गुटरगूँ करते हुए घूम रहे हैं मानों उस कबूतर की शिकायत करके अपने लिए अलग दाना-पानी माँग रहे हों.....।
सीमा को उन पर दया आयी और लड़ने वाले कबूतर पर गुस्सा.......। जी चाहा कि लड़ाकू कबूतर को पकड़कर खूब खरी-खटी सुनाये कि हम मनुष्यों का फेंका दाना खा-खाकर आखिर तुममें भी स्वार्थ और बैमनस्य की भावना आ ही गयी ।
अरे ! प्यार से रहो न जैसा हमेशा रहते आये हो..... क्यों तुम भी हम मनुष्यों की तरह तेरा मेरा करने लगे...?
पर सोचा कि इन्हें कहाँ कुछ समझ आयेगा हमें भी कौन सा आता है....।
उसने उठकर और दाना छत के दूसरे कोने पर बिखेर दिया....।
खुश थी यह देखकर कि अब वे आपस में न लड़कर दोनों कोनों में दाना चुगने में व्यस्त थे,उसने देखा कि एक कोने का दाना खत्म हुआ तो सभी दूसरे कोने में साथ मिलकर दाना चुगने लगे...
तभी ख्याल आया , अरे! वो लड़ाकू कबूतर कहाँ गया होगा? अब नहीं लड़ रहा !.. क्या अकल ठिकाने आ गयी होगी उसकी ?
पर वो लड़ने वाला कबूतर था कौन ?..... शायद ये...अरे नहीं, वह तो काफी मोटा था...तो शायद वो...।
वह जिस पर भी शक करती तो देखती कि वह तो सबसे बड़े प्यार से गुटरगूँ कर रहा है...।
फिर वह दुश्मन कबूतर था कौन...? सोच में पड़ गयी...
तभी उसने जो सुना , तो सुनती ही रह गयी ! एकदम अवाक होकर !!!....
जानते हो है क्या !......?
कबूतर आपस में बतिया रहे थे "अरे आज तो खूब दाना मिल गया, तूने सच ही कहा था मेरे भाई ! कि ये मनुष्य बड़े तमाशबीन होते हैं थोड़ा लड़ने का नाटक क्या किया कि इतना सारा दाना मिल गया" !.... "तो सही है न...... 'तमाशा देखो दाना फेंको' समवेत स्वर में कहकर सारे कबूतर खिलखिला कर हँसे और फड़फड़ाकर उड़ गये।
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टिप्पणियाँ
बहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार एवं धन्यवाद आलोक जी!
हटाएंसुधा दी,मनुष्य और कबूतरों के माध्यम से सुंदर सीख देती रचना।
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार एवं धन्यवाद ज्योति जी!
हटाएंआज के परिपेक्ष पर खरा उतरता चित्रण।
जवाब देंहटाएंवाह सुधा जी बेहतरीन शिक्षाप्रद प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद एवं आभार रितु जी !
हटाएंवाह सुधा जी बहुत पसंद आई आपकी लघुकथा।
जवाब देंहटाएंसच लगता है मानव छूत के रूप में जानवरों, पक्षियों और प्रकृति को अपनी कूटनीति,ईर्ष्या, और अनिती की बिमारियों की चपेट में ले रहा है।
अभिनव कल्पना सुंदर कथा।
जी, कुसुम जी सही कहा आपने...
हटाएंहृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आपका।
मनुष्यों के साथ रहकर कबूतरों ने भी काफी कुछ सीख लिया.. मानवीय स्वभाव को उकेरती सुन्दर लघु-कथा.....
जवाब देंहटाएंतहेदिल से धन्यवाद एवं आभार नैनवाल जी!
हटाएंसुंदर सीख देती अति सुंदर प्रस्तुति 👌👌👌
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार एवं धन्यवाद सखी!
हटाएंसस्नेह आभार भाई!
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद यशोदा जी मेरी रचना को सांध्य दैनिक मुखरित मौन में सम्मिलित करने हेतु।
जवाब देंहटाएंसादर आभार।
आपकी कहानी कह रही कि कबूतर भी मनुष्य से ज्यादा होशियार । यानि मनुष्यों की पृवृति को कितना सही समझ उन्होंने । ज़बरदस्त कटाक्ष करती बढ़िया लघुकथा ।
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार एवं धन्यवाद आ. संगीता जी!सराहनासम्पन्न प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन हेतु।
हटाएंवाह!सुधा जी ,बहुत खूबसूरत सृजन । लघुकथा बहुत कुछ सिखा गई ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार एवं धन्यवाद शुभा जी!
हटाएंमनुष्य बड़े तमाशबीन होते हैं
जवाब देंहटाएंसुन्दर चित्रण
अब इसे लघुकथा कहूं या व्यंग्य । पर जी भी है, मनोरंजक और प्रभावी है। अभिनंदन सुधा जी ।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद एवं आभार जितेंद्र जी!
हटाएंप्रिय सुधा जी , कबूतरों और मानव के माध्यम से सार्थक रचना लिखी आपने | वास्तव में अगर कबूतर बोल पाते तो उनके उदगार यही होते | पशु पक्षी भी इंसान की फितरत पहचानने लगे हैं | भावपूर्ण लघुकथा के लिए हार्दिक शुभकामनाएं|
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार एवं धन्यवाद सखी!
हटाएंबेहतरीन व्यंग
जवाब देंहटाएंअत्यंत आभार एवं धन्यवाद प्रीति जी!
हटाएंअति सुन्दर व्यंगात्मक रचना।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद एवं आभार आ. उर्मिला जी!
हटाएंइंसान को गर्दभराज बनाते कबूतर ! बढ़िया विश्लेषण
जवाब देंहटाएंवाह! सरस, सजीव और शिक्षाप्रद कहानी।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद आ. विश्वमोहन जी!
हटाएंसादर आभार।
आज के समय का यही सच है. दाना (पैसा) फेंको तमाशा देखो. इस लघुकथा के माध्यम से मनुष्य का सच उजाकर किया आपने. बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद जेन्नी शबनम जी!सराहनासम्पन्न प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन करने हेतु।
हटाएंसस्नेह आभार।
"अरे आज तो खूब दाना मिल गया, तूने सच ही कहा था मेरे भाई ! कि ये मनुष्य बड़े तमाशबीन होते हैं थोड़ा लड़ने का नाटक क्या किया कि इतना सारा दाना मिल गया" !....
जवाब देंहटाएंसचमुच ये मनुष्य नाम का प्राणी अजीब ही है ,सही ही कहा कबूतरों ने बस, फर्क ये है कि-पक्षी तो फिर भी अपना पेट भरने को लड़ने का नाटक किये पर मनुष्य तो सिर्फ मजे लेने के लिए ये काम करते हैं। बहुत ही सुंदर सीख देती लघु कथा। सादर नमन सुधा जी
जी, कामिनी जी!सही कहा आपने...
हटाएंतहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आपका।
आपकी लिखी कोई रचना सोमवार 12 अप्रैल 2021 को साझा की गई है ,
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हार्दिक आभार एवं धन्यवाद आ. संगीता जी! मेरी रचना को प्रतिष्ठित मंच पाँच लिंकों के आनंद पर स्थान देने हेतु।
हटाएंबहुत ही सुंदर लघु कथा, इंसान की मनोदशा को दर्शाती हुई नजर आई, हार्दिक शुभकामनाएं, नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद ज्योति जी!आपको भी नवसंवत्सर की अनंत शुभकामनाएं।
हटाएंआप की पोस्ट बहुत अच्छी है आप अपनी रचना यहाँ भी प्राकाशित कर सकते हैं, व महान रचनाकरो की प्रसिद्ध रचना पढ सकते हैं।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद एवं आभार अमित जी!
हटाएंब्लॉग पर आपका स्वागत है।
बहुत खूबसूरत लेखन...। बधाई आपको
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद एवं आभार संदीप जी!
हटाएंब्लॉग पर आपका स्वागत है।
इशारों में आपने बहुत बड़ी बात कही है. सुन्दर।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से धन्यवाद एवं आभार ओंकारनाथ जी!
हटाएंब्लॉग पर आपका स्वागत है।
बहुत खूब ... इंसान की प्रवृति तो लगता है अब सबको समझ आने लगी है ...
जवाब देंहटाएंफिर पंछी तो वैसे भी पढ़ लेते हैं कितना कुछ ...
कल्पना की उड़ान को नमन है आपकी ... एक प्रसंग को बाखूबी सोच में बदल डाला ...
अत्यंत आभार एवं धन्यवाद नासवा जी!
हटाएंबहुत सुंदर,इंसान को पंक्षी पढ़ लेते है पर इंसान जान बूझकर
जवाब देंहटाएंभी पक्षी की तरह नहीं सोचना चाहता । बहुत सुंदर भाव भरी रचना ।
तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार जिज्ञासा जी !
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