विधना की लिखी तकदीर बदलते हो तुम....
हाँ मैं नादान हूँ मूर्ख भी निपट माना मैंंने
अपनी नादानियाँ कुछ और बढ़ा देती हूँ
तू जो परवाह कर रही है सदा से मेरी
खुद को संकट में कुछ और फंसा लेती हूँ
वक्त बेवक्त तेरा साथ ना मिला जो मुझे
अपने अश्कों से तेरी दुनिया बहा देती हूँ
सबकी परवाह में जब खुद को भूल जाती हूँ
अपनी परवाह मेंं तुझको करीब पाती हूँ
मेरी फिकर तुझे फिर और क्या चाहना है मुझे
तेरी ही ओट पा मैं मौत से टकराती हूँ
मैंंने माना मेरे खातिर खुद से लड़ते हो तुम
विधना की लिखी तकदीर बदलते हो तुम
मेरी औकात से बढ़कर ही पाया है मैंंने
सबको लगता है जो मेरा, सब देते हो तुम
कभी कर्मों के फलस्वरूप जो दुख पाती हूँ
जानती हूँ फिर भी तुमसे ही लड़ जाती हूँ
तेरे रहमोकरम सब भूल के इक पल भर में
तेरे अस्तित्व पर ही प्रश्न मैं उठाती हूँ
मेरी भूले क्षमा कर माँ ! सदा यूँ साथ देते हो
मेरी कमजोर सी कश्ती हमेशा आप खेते हो
कृपा करना सभी पे यूँ सदा ही मेरी अम्बे!
जगत्जननी कष्टहरणी, सभी के कष्ट हरते हो ।।
चित्र ; साभार गूगल से...
टिप्पणियाँ
सादर आभार।
सादर आभार।
बहुत सुंदर रचना दी।
सस्नेह आभार।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (२६-१०-२०२०) को 'मंसूर कबीर सरीखे सब सूली पे चढ़ाए जाते हैं' (चर्चा अंक- ३८६६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
सस्नेह आभार।
उत्कृष्ट रचना
ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
सादर आभार।
जानती हूँ फिर भी तुमसे ही लड़ जाती हूँ
तेरे रहमोकरम सब भूल के इक पल भर में
तेरे अस्तित्व पर ही प्रश्न मैं उठाती हूँ
–सत्य सार्थक भावाभिव्यक्ति
उम्दा रचना
साधुवाद