मुक्तक-- 'नसीब'
इधर सम्भालते उधर से छूट जाता है,
आइना हाथ से फिसल के टूट जाता है,
बहुत की कोशिशें सम्भल सकें,हम भी तो कभी,
पर ये नसीब तो पल-भर में रूठ जाता है ।
सहारा ना मिला तो ना सही , उठ बैठे हम ,
घाव रिसते रहें, ना पा सके कोई मलहम।
जमाना ये न समझे, हम गिरे भी राहों में,
होंठ भींचे, मुस्कराये पी गये झट सारे गम ।
कभी रंगती दिखी हमको भी ये तकदीर ऐसे,
लगा पतझड़ गयी अब खिल रही बसंत जैसे,
चार दिन चाँदनी के फिर अंधेरी रात सी थी,
बदा तकदीर में जो अब बदलता भी कैसे ?
फिर भी हारे नहीं चलते रहे, चलना ही था,
रात लम्बी थी मगर रात को ढ़लना ही था,
मिटा तम तो सवेरे सूर्य ज्यों ही जगमगाया,
घटा घनघोर छायी सूर्य को छुपना ही था।
अंधेरों में ही मापी हमने तो जीवन की राहें,
नहीं है भाग्य में तो छोड़ दी यूँ सुख की चाहें,
राह कंटक भरी पैरों को ना परवाह इनकी,
शूल चुभते रहे भरते नहीं अब दर्दे-आहें ।
टिप्पणियाँ
रात लम्बी थी मगर रात को ढ़लना ही था
मिटा तम तो सवेरे सूर्य ज्यों ही जगमगाया
घटा घनघोर छायी सूर्य को छुपना ही था।
हृदयस्पर्शी सृजन सुधा जी ! सभी मुक्तक हृदय मे उतरते हुए।
किन्तु जिन्दगी आईना नहीं सच्चाई है,गिरना उठना ,चोट लगना दर्द की पीड़ा को सह कर भी हार नहीं मानता उसके घाव भी एक दिन मुस्कराते हैं और उसकी जीत पर तालियां बजाते हैं ।
नहीं है भाग्य में तो छोड़ दी यूँ सुख की चाहें
राह कंटक भरी पैरों को ना परवाह इनकी
शूल चुभते रहे भरते नहीं अब दर्दे-आहें
दिल को छूती रचना, सुधा दी।
सस्नेह आभार।
रात लम्बी थी मगर रात को ढ़लना ही था"
बहुत ही सुंदर सृजन,नसीब में ना तो ना सही हिम्मत नहीं टूटनी चाहिए,सादर नमन आपको
सादर आभार।
साधुवाद
फिर भी हारे नहीं चलते रहे, चलना ही था
रात लम्बी थी मगर रात को ढ़लना ही था
मिटा तम तो सवेरे सूर्य ज्यों ही जगमगाया
घटा घनघोर छायी सूर्य को छुपना ही था।...वाह !
आपको अच्छी लगा तो सृजन सार्थक हुआ
सादर आभार।
सादर आभार।
ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
नहीं है भाग्य में तो छोड़ दी यूँ सुख की चाहें
राह कंटक भरी पैरों को ना परवाह इनकी
शूल चुभते रहे भरते नहीं अब दर्दे-आ
,,,,,।
,,,,,, बहुत भावपूर्ण रचना मुझे ये पंक्तिया दिल को छू गई,।
ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
सादर आभार।
सादर आभार।