आओ बच्चों ! अबकी बारी होली अलग मनाते हैं

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  आओ बच्चों ! अबकी बारी  होली अलग मनाते हैं  जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । ऊँच नीच का भेद भुला हम टोली संग उन्हें भी लें मित्र बनाकर उनसे खेलें रंग गुलाल उन्हें भी दें  छुप-छुप कातर झाँक रहे जो साथ उन्हें भी मिलाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । पिचकारी की बौछारों संग सब ओर उमंगें छायी हैं खुशियों के रंगों से रंगी यें प्रेम तरंगे भायी हैं। ढ़ोल मंजीरे की तानों संग  सबको साथ नचाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । आज रंगों में रंगकर बच्चों हो जायें सब एक समान भेदभाव को सहज मिटाता रंगो का यह मंगलगान मन की कड़वाहट को भूलें मिलकर खुशी मनाते हैं जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । गुझिया मठरी चिप्स पकौड़े पीयें साथ मे ठंडाई होली पर्व सिखाता हमको सदा जीतती अच्छाई राग-द्वेष, मद-मत्सर छोड़े नेकी अब अपनाते हैं  जिनके पास नहीं है कुछ भी मीठा उन्हें खिलाते हैं । पढ़िए  एक और रचना इसी ब्लॉग पर ●  बच्चों के मन से

समय तू पंख लगा के उड़ जा......




माँँ !  मुझे भी हॉस्टल में रहना है,मेरे बहुत से दोस्त हॉस्टल में रहते हैं, कितने मजे है उनके !....हर पल दोस्तों का साथ नहीं कोई डाँट-डपट न ही कोई किचकिच । मुझे भी जाना है हॉस्टल, शौर्य अपनी माँ से कहता तो माँ उसे समझाते हुए कहती "बेटा ! जब बड़े हो जाओगे तब तुम्हे भी भेज देंगे हॉस्टल ।फिर तुम भी खूब मजे कर लेना" ।
समझते समझाते शौर्य कब बड़ा हो गया पता ही नहीं चला, और आगे की पढ़ाई के लिए उसे भी हॉस्टल भेज दिया गया। बहुत अच्छा लगा शुरू-शुरू में शौर्य को हॉस्टल मेंं ।परन्तु जल्दी ही उसे घर और बाहर का फर्क समझ में आने लगा ।
अब वह घर जाने के लिए छुट्टियों का इन्तजार करता है,और घर व अपनोंं की यादों में कुछ इस तरह गुनगुनाता है ।



समय तू पंख लगा के उड़ जाकर
उस पल को पास ले आ ।
जब मैंं मिल पाऊँ माँ -पापा से ,
माँ-पापा मिल पायें मुझसे
वह घड़ी निकट तो ला !
समय तू पंख लगा के उड़ जा ।

छोटे भाई बहन मिलेंगे प्यार से मुझसे,
हम खेलेंगे और लडे़ंगे फिर से ।
वो बचपन के पल फिर वापस ले आ !
समय तू थोड़ा पीछे मुड़ जा !

तब ना थी कोई टेंशन-वेंशन ना था कोई लफड़ा,
ना आगे की फिकर थी हमको ना पीछे का मसला।
घर पर सब थे मौज मनाते खाते-पीते तगड़ा ।
खेल-खेल में हँसते गाते या फिर करते झगड़ा ।

माँ-पापा की डाँट डपट में प्यार छिपा था कितना !
अपने घर-आँगन में हम सब मौज मनाते इतना 
उन लम्होंं को रात नींद में रोज बना दे सपना !
समय तू कुछ ऐसा कर जा !
समय तू पंख लगा के उड़ जा।
मैं मिल पाऊँ अपनों से वह घड़ी निकट ले आ।
समय तू पंख लगा के उड़ जा !
     

टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 14 दिसम्बर 2022 को साझा की गयी है...
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आपका । रचना को मंच प्रदान करने हेतु ।

      हटाएं
  2. माँ - बाप की टोका टाकी से बच्चों को आज़ादी चाहिए होती है लेकिन जब अलग रहना पड़ता है तब पता चलता है कि घर और बाहर रहने में क्या अंतर है ।

    जवाब देंहटाएं
  3. कविता और कहानी के माध्यम से बच्चों के मनोदशा का सुन्दर वर्णन 🙏

    जवाब देंहटाएं
  4. बचपन, माता-पिता और मायका कितनी भी उम्र हो यादों से कहां छूट पाया है।
    हृदय स्पर्शी रचना।

    जवाब देंहटाएं

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