बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला

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बहुत समय से बोझिल मन को  इस दीवाली खोला भारी भरकम भरा था उसमें  उम्मीदों का झोला कुछ अपने से कुछ अपनों से  उम्मीदें थी पाली कुछ थी अधूरी, कुछ अनदेखी  कुछ टूटी कुछ खाली बड़े जतन से एक एक को , मैंने आज टटोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला दीप जला करके आवाहन,  माँ लक्ष्मी से बोली मनबक्से में झाँकों तो माँ ! भरी दुखों की झोली क्या न किया सबके हित,  फिर भी क्या है मैने पाया क्यों जीवन में है मंडराता ,  ना-उम्मीदी का साया ? गुमसुम सी गम की गठरी में, हुआ अचानक रोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला प्रकट हुई माँ दिव्य रूप धर,  स्नेहवचन फिर बोली ये कैसा परहित बोलो,  जिसमें उम्मीदी घोली अनपेक्षित मन भाव लिए जो , भला सभी का करते सुख, समृद्धि, सौहार्द, शांति से,  मन की झोली भरते मिले अयाचित सब सुख उनको, मन है जिनका भोला बहुत समय से बोझिल मन को इस दीवाली खोला मैं माँ तुम सब अंश मेरे,  पर मन मजबूत रखो तो नहीं अपेक्षा रखो किसी से,  निज बल स्वयं बनो तो दुख का कारण सदा अपेक्षा,  मन का बोझ बढ़ाती बदले में क्या मिला सोचकर,  हीन भावना लाती आज समर्पण कर दो मुझको, उम्मीदों का झोला बहुत समय से बो

वितृष्णा - "ये कैसा प्रेम था" ?

 

Vitrishna - story

आज खाना बनाते हुए बार-बार आँखें छलछला रही थी नेहा की। महीने भर से दुखी मन को बामुश्किल ढाँढ़स बँधाती नेहा का दुख जैसे आज फिर से हरा हो गया था जब उसे रमेश (पति) ने बताया कि राघव जी आ रहे हैं तो वही पुरानी यादें सिया के साथ बिताये वो पल और फिर वह भयावह हादसा सब दिमाग में ऐसे घूमने लगे,जैसे अभी-अभी की बात हो ।  दुख भी लाजमी था, सिया सिर्फ सखी ही नहीं बहन सी थी उसके लिए । 

पाँच साल पहले उसके पति का तबादला जब दिल्ली हुआ और नेहा बच्चों सहित यहाँ आई तो कितना अकेलापन महसूस कर रही थी । रमेश तो घर में सामान शिप्ट कर अपने नये ऑफिस और ड्यूटी में व्यस्त हो गये। नेहा अकेले क्या-क्या करे, बच्चों को सम्भाले, कि लाया हुआ सामान सैट करे या फिर मार्केट से राशन-पानी लाकर खाने-पीने की व्यवस्था करे । 

अपने फ्लैट में पहुँचकर वह सोच -सोचकर परेशान थी कि दिल्ली जैसे शहर में पानी भी खरीदकर लाना पड़ेगा और अभी तो ये भी नहीं मालूम कि यहाँ से  मार्केट है कितनी दूर ?

तभी डोरबेल की आवाज सुन ये सोचकर दरवाजा खोला कि शायद रमेश आ गये हों छुट्टी लेकर। देखा तो सामने शरबत एवं चाय नाश्ता लेकर कोई अनजान औरत खड़ी है ।

झुँझलाये चेहरे एवं बिखरे बालों पर हाथ फेरते हुए नेहा ने "जी" कहकर जबरन मुस्कुराते हुए आँखों से ही जैसे परिचय पूछा । तो वह  मुस्कराकर बोली,  "जी मैं सिया,  सिया शर्मा । वो सामने वाला फ्लैट हमारा है । अब आप यहाँ रहेंगे तो हम आपके पड़ोसी हुए"। फिर ट्रे को कुछ उठाकर दिखाते हुए बोली "अन्दर आ जाऊँ" ?

"जी , जी जरूर" कहकर नेहा कुछ कसमसा कर पीछे हटी तो सिया ट्रे लिए अन्दर आ गयी और खुद ही गिलास में शरबत डालकर बच्चों को देती हुई उनसे नाम पूछकर प्यार से बतियाने लगी । फिर नेहा को भी शरबत देते हुए बोली, "और आपका शुभनाम" ?

"जी, मैं नेहा" ,  कहते हुए उसने शरबत का गिलास लिया और थैंक्स कहकर सामने रखी कुर्सी की तरफ इशारा करके बैठने का आग्रह किया ।

परन्तु सिया बोली "नेहा जी ! उठना बैठना तो अब होता ही रहेगा , पहले आप बच्चों के साथ चाय - नाश्ता लीजिए और आराम कीजिए । डिनर मैं बना रही हूँ सबका । फिर कल सुबह सब मिलकर आपका सामान सैट कर लेंगे ।आप चिंता मत करना और इस बीच बच्चों को या आपको किसी भी चीज की जरुरत हो तो सीधे आ जाइयेगा, दरवाजा खुला ही है", ओके ! कहते हुए सिया चली गयी । 

नेहा को कुछ ना-नुकर करने या किसी तरह की फॉर्मैलिटी का मौका भी नहीं दिया ।  वह बड़ी दुविधा में पड़ गयी । दरअसल वो पहली बार रमेश के साथ आई थी इससे पहले वो घर-परिवार में अपनों के साथ रही , किसी अनजान व्यक्ति से इस तरह की ना उसे अपेक्षा थी ना ही उम्मीद।

उसके दोनों बच्चे अभी शरबत पीने में व्यस्त थे, इससे पहले कि वे नाश्ता देखकर खाने की जिद्द करें, उसने तुरंत रमेश को फोन किया और सारी बात बताई । उसे लगा कि रमेश अनजान लोगों का दिया चाय नाश्ता नहीं लेने की बात कहेंगे, परन्तु इसके उलट रमेश ने कहा कि ये तो अच्छी बात है तुम लोग नाश्ता करो मजे से !

"हैं !  पर हम तो उन्हें नहीं जानते" ! आश्चर्यचकित हो नेहा बोली।

अरे !नहीं जानते तो जान जायेंगे न धीरे - धीरे  । जब पड़ोसी हैं तो जान -पहचान तो हो ही जायेगी। फिलहाल तुम आराम से बच्चों को नाश्ता करवा लो और खुद भी खा लेना  , ओके... बाय (कहकर रमेश ने फोन रख दिया) ।

बड़ा अजीब लगा नेहा को ये सब । उसने कुछ देर सोचा ,  फिर  हालात और मजबूरी समझते हुए चाय नाश्ता ले ही लिया । 

फिर एक रूम के बैड को झाड़-झपोड़ कर बिस्तर तैयार किया और बच्चों को सुलाने एवं थोड़ा सुस्ताने लेटी तो शाम तक सोती ही रह गयी।

डिनर ही नहीं अगली सुबह तड़के ही ब्रेकफास्ट भी भिजवा दिया सिया ने । और कहेनुसार अपने साथ अपनी मेड कमला को लेकर पहुँच गयी नेहा के घर ।

तीनो ने मिलकर फटाफट घर की साफ-सफाई कर सामान सैट कर दिया । कीचन सैट होने पर नेहा ने चाय बनाई और उन्होंने मिलकर चाय पीते हुए एक-दूसरे के बारे में जाना। बस तभी से आपस में ऐसे घुली-मिली कि जैसे बरसों पुराना रिश्ता हो।

दोनों हर छोटी बड़ी बातें एक-दूसरे से शेयर करती । नेहा के बच्चे छोटे थे, तो सिया ही आ जाती नेहा के घर बच्चों के स्कूल और पति (राघव) के ऑफिस जाने के बाद ।  उसके बच्चों को सम्भाल लेती ताकि वह भी जल्दी काम निबटा कर फ्री हो सके ।

एक-आध साल में नेहा के बच्चे भी स्कूल जाने लगे, तो भी नेहा का काम कभी सिया से पहले खतम नहीं हुआ, सिया तो पति और बच्चों के जाते ही खुद भी फ्री हो जाती और नेहा सबको भेजकर घर का काम शुरू करती क्योंकि रमेश कभी घर के काम में नेहा का हाथ नहीं बँटाते जबकि राघव और सिया सब काम मिल-जुलकर करते । 

इस बात के लिए तो अड़ोस-पड़ोस और जान-पहचान की औरतें भी सिया को बड़ा भाग्यशाली मानती । कई औरतें मजाक-मजाक में उससे पूछती भी कि "सिया कौन से पुण्य किये आपने जो इतने केरिंग हसबैंड मिले" ! तो जबाब में सिया कभी सिर्फ मुस्कुरा देती तो कभी बड़ी श्रद्धा से हाथ जोड नजरें ऊपर उठाते हुए कहती,  "भोलेनाथ की बड़ी कृपा है मुझ पर" । 

सिया हर सोमवार का व्रत किया करती ।  एक बार नेहा ने व्रत के बारे में पूछा उसने  बताया कि मैं अपनी शादी के पहले से ही व्रत करती हूँ भगवान शंकर के । और मैं सच्ची में मानती हूँ कि भोलेनाथ की कृपा से ही पति-पत्नी में आपसी प्रेम और सौहार्द बढ़ता है ।

नेहा पहले कभी ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देती थी , लेकिन अब उसे भी इन सब बातों पर विश्वास होने लगा था । क्योंकि वह जब भी सिया के घर जाती तो देखती कि पति-पत्नी हर काम मिल-जुलकर निबटाते हैं । यहाँ तक कि कीचन में खाना बनाते हुए भी राघव साथ होते हैं सिया के । उसने कभी उन दोंनो के बीच तू-तू  मैं-मैं तो दूर हल्का सा मनमुटाव भी नहीं देखा ।  

वह मन ही मन रमेश पर कुढ़ती । कई बार सामने से भी कहती कि रमेश आप भी मेरा हाथ बँटाया करो न घर के कामों में ! अरे कुछ तो सीखो अपने पड़ोसी राघव जी से ! देखो कितना प्यार है उन्हें अपनी पत्नी से । हर समय साथ होते हैं उनके, हर काम में मदद करते हैं। और एक आप हैं ऑफिस से आते ही टीवी और मोबाइल से चिपक जाते हैं, ना मेरी परवाह न बच्चों की चिंता ।

"अरे ! ऐसा मत कहो यार ! प्यार तो मैं भी बहुत करता हूँ तुमसे , पर क्या करूँ ऑफिस में ही बुरी तरह से थक जाता हूँ , और फिर तुम सब कुछ अच्छे से सम्भाल भी तो लेती हो । तुम्हीं ने तो बिगाड़ी मेरी आदत , और अब ऐसे ताने मार रही हो",  कहकर रमेश मुँह फुला लेते ,  तो कभी मजाक में कहते,  "यार ! राघव जी से बात करनी पड़ेगी मुझे,  कि इतना भी जोरू के गुलाम ना बने कि हम सरीखों को ताने पड़ें" ।

एक सोमवार जब रमेश को पता चला कि नेहा व्रत कर रही है तो उसे समझाते हुए बड़े मनुहार से कहा, "नेहा व्रत रहने दो यार ! दिया-बत्ती और पूजा पाठ करके भगवान का स्मरण करते हैं न हम सुबह शाम । बस बहुत है इतना । ये उपवास रख कर खाली पेट घर और बच्चों को कैसे सम्भालोगी । चलो खाना खा लो "!

सुनकर नेहा बहुत खुश हुई, एकदम चहकती हुई बोली, "अरे वाह! रमेश ! , आप मेरी केयर कर रहे हैं ! सही कहती हैं सिया । सोमवार का व्रत अभी तो शुरू ही किया कि भोलेनाथ की कृपा होने लगी।अब तो मैं सारे सोमवार व्रत रखूंगी" ।

रमेश समझ गया कि नेहा नहीं मानने वाली ।  इसलिए बस कोशिश करता कि सोमवार को नेहा की थोड़ी बहुत मदद करूँ ताकि भूखे पेट उस पर काम का बोझ थोड़ा हल्का हो सके ।और नेहा को खुशी होती कि भोलेनाथ की कृपा से रमेश अब उसकी परवाह करने लगे हैं । वह ये सभी बातें सिया से शेयर करती और भगवान के साथ-साथ उसका भी धन्यवाद करती ।

एक सुबह सिया ने नेहा को घर की चाबी देते हुए बताया कि "राघव को हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ा है उन्हें बुखार था, जाँच से पता चला कि उन्हें खतरनाक डेगूं हुआ है मैं वही जा रही हूँ बच्चों के स्कूल से आने पर खाना खिला देना" ।  

सुनकर नेहा को बहुत दुख हुआ उसने चाबी मेज पर रखी और फटाफट अपने को व्यवस्थित किया और चिंतित होकर बोली , "चलो मैं भी चलती हूँ और रमेश को भी फोन करके ऑफिस से वहीं बुला लेते हैं , बच्चों की बाद में सोच लेंगे ।

तो सिया बोली, "नहीं नेहा ! रमेश जी को बुलाने की जरूरत नहीं है और तुम भी घर पर ही रुककर बच्चों को देख लेना , मैं जाकर देखती हूँ अगर जरूरत पड़ी तो मैं तुम्हें फोन करुँगी" ।

राघव बीमार थे और प्राण सिया के सूख रहे थे । कितनी दुबली हो गयी थी वह। ना खाती थी ना ही चैन से सो ही पाती थी । सुबह शाम हॉस्पिटल के चक्कर काटना ।  मन्नतें करना उपवास रखना । नेहा ने कितनी बार समझाया, सिया चिंता मत करो, डॉक्टर ने कहा न चिंता वाली कोई बात नहीं, राघव जी पहले से बेहतर हैं और जल्द ही बिल्कुल ठीक हो जायेंगे । अपना भी ख्याल रखो , पर सिया कहती "यार मैं तो ठीक ही हूँ बस एक बार ये ठीक-ठाक घर आ जायें तो चैन मिले ।

और भगवान ने उसकी सुन ली । उस शाम जब सिया हॉस्पिटल से लौटी तो उसके मुरझाए बेचैन चेहरे पर थोड़ी सी राहत थी ।  सूखे पपड़ाये होंठ खुशी से कुछ पसरे तो खून रिसने लगा, नेहा ने झट से पानी लाकर उसे बिठाते हुए पहले पानी पीने को कहा तो एक घूट बामुश्किल गटक कर लम्बी की साँस खींच उतावली हो बोली, "राघव कल डिस्चार्ज हो जायेंगे, नेहा !

"अच्छा !  ये तो बड़ी खुशी की बात है , चलो अब तो खुश हो न सिया ! अब शान्ति से बैठो मैं चाय बनाकर लाती हूँ । बच्चे भी ट्यूशन से आते ही होंगे । खुश हो जायेंगे सुनकर" ।

"चाय -वाय छोड़ो न नेहा ! पहले मेरे साथ कल के लिए कुछ सरप्राइज प्लान करो ना" । 

"सरप्राइज" !  खुशी से चिल्लाते हुए उसके दोनों बच्चे आकर उस पे चिपक गये । फिर पूछने लगे "कैसा सरप्राइज मम्मा ! सरप्राइज पार्टी ? मतलब पापा आ रहे हैं" ? सिया ने खुशी से हाँ में सिर हिलाया तो दोनों  "ए "   करके खुशी से नाचने लगे । फिर बोले, "मम्मा ! हम भी कल की छुट्टी कर लें स्कूल की ? प्लीज" ?

तो सिया बोली, "ठीक है बाबा कर लेना" ! 

 "ए..."  कहते हुए दोनों खुशी से उछलने लगे।

उन सबको खुश देखकर नेहा भी बहुत खुश हुई । इतने दिनों से बच्चे नेहा के ही पास थे वे जब तब पापा को याद करके उदास हो जाते थे, आज उनकी इस खुशी के लिए उसने मन ही मन भगवान का धन्यवाद किया और सिया से बोली, कि मैं सुबह बच्चों को स्कूल भेजकर साढ़े सात बजे तक आ जाउंगी फिर मिलकर तैयारी करेंगे सरप्राइज पार्टी की  ।  अकेले शुरू मत हो जाना , सिया ! तुम्हें आराम की जरूरत है । फिलहाल आराम करो । कल सुबह मिलकर सारी तैयारी कर लेंगे" ।

अगली सुबह नेहा ने अपने बच्चों को स्कूल भेजा।  रमेश ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था , उसे बताकर सिया के घर चली गयी । दरवाजा बंद था डोरबेल की आवाज से भी सिया ने दरवाजा नहीं खोला तो नेहा ने कीचन की खिड़की से उचककर आवाज देते हुए अंदर झाँका ।

बह रहे खून को देखकर आँखें भींच ली फिर अपनी ही आँखों पर संदेह करते हुए मन ही मन सोचा कि ये मुझे सुबह-सुबह कैसा भ्रम हो रहा है । दुबारा झाँककर देखा तो उसके होश उड़ गये, आँखें फटी की फटी रह गयी, मुँह से बोल नहीं निकल रहे थे , पूरी शक्ति लगाकर एक चीख निकली , "सिया !......"

इधर रमेश ने उसके चिल्लाने की आवाज सुनी तो दौड़कर वहाँ पहुँचा, देखा नेहा बेहोशी में गिरने ही वाली है तो झट से उसे थामकर हिलाया तो उसने कुछ सम्भलकर आँखें खोली। डबडबाई भयभीत आँखों से रमेश को देखा और फफकते हुए आधे-अधूरे शब्द बोलकर खिड़की की तरफ इशारा किया।

"क्या हुआ नेहा ? क्या है वहाँ "  कहकर रमेश ने उसे वहीं बिठाया और खिड़की से अन्दर झाँका, तो देखा सिया जमीन में गिरी है और उसके सिर से खून की नदी सी बह रही है।

सिया जी !...सिया जी ! कहकर जोर जोर से आवाज देते हुए वह कभी दरवाजे पर तो कभी खिड़की पर हाथ मारने लगा । नेहा भी उठी और जोर-जोर से सिया और बच्चों को आवाज देने लगी ।

उनका शोर सुनकर अगल-बगल के और लोग भी इकट्ठा हो गये मजबूरन दरवाजा तोड़कर अन्दर गये , किसी ने फोन कर एम्बुलेंस बुलाई, आनन-फानन उसे हॉस्पिटल पहुँचाया परन्तु  सिर का बहुत ज्यादा खून बह जाने कारण डॉक्टर उसकी जान नहीं बचा पाये ।

डॉक्टर के अनुसार  तनाव व कमजोरी से चक्कर खाकर गिरने और किसी भारी चीज से सिर टकराकर  ज्यादा रक्तस्राव होने के कारण उसकी मृत्यु हुई ।

गिरकर चोट लगने पर शायद वह चिल्लाई भी हो परन्तु अफसोस कि उसके बच्चे जो अन्दर कमरे में सो रहे थे कूलर की आवाज में अपनी माँ की चीख न सुन पाये ।

नेहा रोते हुए  खुद को कोस रही थी कि काश मैं ही थोड़ा पहले आती तो शायद उसकी जान बच जाती। तो कभी बदहवास सी ज्यों उसे डाँटती कि "सब्र नहीं था सिया ! जब कहा था मैंने कि साथ मिलकर तैयारी करेंगे फिर इतनी जल्दी अकेले लगने की क्या जरूरत थी ।

राघव पर तो दुखों का मानो पहाड़ ही टूट गया था ।हॉस्पिटल से घर आकर उसे क्या देखने को मिला था ।बच्चे जो सरप्राइज पार्टी और पापा के लिए स्कूल नहीं गये थे, पापा मिले पर माँ को खो चुके थे ।

खबर मिलते ही गाँव से उनके अपने सगे सम्बन्धी पहुँच गये थे सिया का अंतिम संस्कार व अन्य सभी कर्मकाण्डों के लिए वे सभी अपने पैतृक गाँव चले गये।

आज एक महीने से ऊपर ही हो गया था जब रमेश को राघव ने फोन पर अपने आने की सूचना दी थी और नेहा उनके भोजन की व्यवस्था कर रही थी । 

वह रमेश से बोली, "बच्चों का ख्याल मैं रख लूँगी , आपको बस राघव जी को सम्भालना होगा ,बेचारे कैसे उबरेंगे इस दुख से । पूरे घर भर में सिया की यादें हैं ।सिया के बगैर अब क्या होगा उनका ? बेचारे" ! कहते हुए वह रुआंसी हो गयी।

"चिंता मत करो नेहा ! भगवान दुख देते हैं तो सहने और सम्भलने की शक्ति भी देते हैं । फिर हम हैं न यहाँ पर । ख्याल रखेंगे उनका । पर तुम खुद ही ऐसे दुखी रहोगी तो उन बच्चों को कैसे सम्भालोगी ! सब ठीक हो जायेगा" कहकर रमेश ने नेहा को ढाँढ़स बंधाया ।

रात करीबन आठ बजे  डोरबेल की आवाज सुन  दरवाजा खोला तो बच्चों को देख नेहा भावुक हो गयी दोनों को एक साथ गले लगाया । पर बच्चे भावशून्य से मिले और रमेश को भी नमस्ते कहकर सिया के दोनों तरफ खड़े हो गये ।

तभी मिठाई का डिब्बा हाथ में लिए राघव के साथ एक नई-नवेली दुल्हन सी सजी अल्हड़ उम्र की लड़की को देख दोनों ने असमंजस में एक दूसरे की तरफ देखा।  ।

मिठाई का डिब्बा सामने रखे मेज पर रख राघव ने  रमेश की तरफ हाथ बढ़ाया, जबरन हाथ पकड़कर खुशी-खुशी बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाकर लड़की की तरफ इशारा कर बोला, "ये मेरी पत्नी है श्रुति और श्रुति ये हैं रमेश जी और नेहा जी हमारे पड़ोसी" ।

सुनकर हतप्रभ सी नेहा की आँखें फटी की फटी रह गयी, "हुँह" की आवाज के साथ वह लड़खड़ाकर गिरने को हुई तो पास खड़े बच्चों ने उसे सम्भाल लिया । कितने ही सवाल एक साथ उसके जेहन में बबाल मचाने लगे परन्तु होंठ फड़फड़ाकर रह गये । तभी कन्धे पर रमेश के हाथों का स्पर्श महसूस किया तो जबरन आँखें मूँदकर मुँह फेर लिया ।

रक्तवर्ण जलती आँखों से रमेश ने राघव की तरफ देखा  बहुत कुछ कहना चाहा परंतु हाथ झटक कर रह गया फिर मेज से मिठाई का डिब्बा उठा वापस उसके के हाथ में पकड़ाते हुए बोला , "मुबारक हो आपको शादी भी और ये मिठाई भी ! अब हम तो पड़ोसी ठहरे कुछ कहने का हक ही कहाँ है हमें । 

हाँ पर इतना तो कह सकते हैं कि आप अपना ये डिब्बा लीजिए और अपने घर चले जाइए ! चले जाओ यहाँ से प्लीज !  दबी आवाज में दाँत पीसते हुए रमेश ने कहा और उनकी तरफ पीठ फेरते हुए अपनी मुट्ठियाँ भींच ली ।

अगली सुबह नेहा अनमने से उठी और बालकनी में पौधों को पानी देने गयी तो पडोस में नजर पड़ी, राघव अब श्रुति के आगे पीछे डोल रहा था , सिया उसका बीता कल बनकर उसकी जिंदगी से ही नहीं यादों से भी जा चुकी थी ।  हाँ बच्चों की खामोशी और उदासी देखी नहीं जा रही थी, पर वह जान चुकी थी कि बच्चे भी सम्भल ही जायेंगे । दुखी मन वह बुदबुदायी "महीने भर में ही तुम्हारी जगह किसी और को दे दी सिया ! वह भी उसने जिसके लिए तुमने खुद की परवाह तक नहीं की। ये कैसा रिश्ता था तुम्हारा ? इसमें प्यार था भी या नहीं। उसका मन वितृष्णा से भर उठा ।।


टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 25 अगस्त 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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    1. पांच लिंकों का आनन्द" मंच पर मेरी रचना साझा करने के लिए तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आ. रविंद्र जी !

      हटाएं
  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (२५-०८ -२०२२ ) को 'भूख'(चर्चा अंक -४५३२) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    उत्तर
    1. तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार प्रिय अनीता जी ! मेरी रचना को चर्चा मंच पर साझा करने हेतु ।

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  3. अत्यंत मर्मस्पर्शी कहानी अपने शीर्षक की सार्थकता को बयान करती!

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    1. हार्दिक धन्यवाद एवं आभार आ.विश्वमोहन जी !

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  4. जीवन की सच्चाई को खोल कर रख दिया है आपने

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  5. अपनी सहूलियत और स्वार्थ पर टिके रिश्ते में प्रेम नहीं कृत्रिम भावनाओं का खोखला ढाँचा होता है ,सचमुच ऐसे भी असंवेदनशील और ढ़ोंगी लोग होते हैं समाज में।
    मर्मस्पर्शी कहानी सुधा जी उद्वेलित कर गयी।
    बहुत अच्छे से गूँथा है आपने।
    सस्नेह।

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    1. तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार प्रिय श्वेता जी! आपकी सराहना पाकर सृजन को सार्थक हुआ ।

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  6. मार्मिक . इसी को कहते हैं आंखों देखी चेतना मुंह देखा व्यवहार

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    1. तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आ. गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी !आपकी अनमोल प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ ।

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  7. दुखान्त कहानी, पर मन मँथन कर उद्वेलित कर गई।बहुत सुंदर।

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  8. सुधा दी, कहते है कि दूर के ढोल सुहाने लगते है। जब सच्चाई पता चलती है तब अंदर की पोल पता चलती है। दिल को छूती सुंदर कहानी।
    दी, आपके ब्लॉग पोस्ट की जानकारी मेरे रीडिंग लिस्ट में नही आ रही। देखिएगा क्या हुआ। फेसबुक के माध्यम से ब्लॉग तक पहूंची हूं।

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  9. यूँ तो ये सब आम बात है । पुरुषों के लिए सारे मार्ग खुले हैं । स्त्रियाँ ही एक के नाम पर सारी उम्र काट देती हैं । अब तो उसमें भी बदलाव आ रहा है । ये ज़रूर है कि एक महीने के अंदर ही ये सब आसानी से नहीं भुलाया जा सकता । आगे पीछे घूमने से तो बस प्रेम का दिखावा ही समझ आता है ।
    ऐसे किस्से तो हमारी आँखों के सामने भी हुए हैं ।

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  10. मर्मस्पर्शी मार्मिक कहानी

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  11. मार्मिक कहानी पढ़कर मन भर आया

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  12. बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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  13. जीवन की सच्चाई बयां करती मार्मिक कहानी !!

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  14. बड़ी ही मार्मिक कहानी है सुधा जी। यह दुनिया ऐसी ही है। बहुत-बहुत बधाई आपको। सादर।

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  15. बहुत मार्मिक बहुत रोचक हर पल बाब्धे रखने वाली कहानी |

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  16. मर्मस्पर्शी कहानी सुधा जी !

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  17. ऐसे लोग समाज में अक्सर मिल जाते हैं, जिन्हे रंग बदलते देर नहीं लगती । सभ्य समाज में इन्हें शुरू में इन्हें दुत्कार ही मिलती है। परंतु समय के साथ हर कोई भूल जाता है। मन को स्पर्श करती विचारणीय कहानी । बधाई ।
    कई दिन पहले पढ़ी कहानी..बाहर थी, फोन साथ नही दिया । इसलिए प्रतिक्रिया नहीं दे पाई।क्षमा सखी ।

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  18. प्रिय सुधा जी,आज के भौतिकवादी युग में प्रेम की परिभाषा ही बदल गई।इन्सान अपनी मजबूरी बताता है जबकि ये किसी इन्सान के संवेदना शून्य होने की परिचायक है। आमतौर पर लडकियों में समर्पण की भावना ज्यादा होती है और वे इस स्थिति से आसानी से निकल नहीं पाती।यथार्थ के बहुत करीब सन्वेदनाओं को स्पर्श करती रचना के लिए बधाई आपको।आजकल गद्य बहुत अच्छा लिख रही हैं आप।

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