प्रकृति की रक्षा ,जीवन की सुरक्षा
उर्वरक धरती कहाँ रही अब
सुन्दर प्रकृति कहाँ रही अब
कहाँ रहे अब हरे -भरे वन
ढूँढ रहा है जिन्हें आज मन
तोड़ा- फोड़ा इसे मनुष्य ने
स्वार्थ -सिद्ध करने को
स्वार्थ -सिद्ध करने को
विज्ञान का नाम दे दिया
परमार्थ सिद्ध करने को
परमार्थ सिद्ध करने को
सन्तुलन बिगड़ रहा है
अब भी नहीं जो सम्भले
भूकम्प,बाढ,सुनामी तो
कहीं तूफान चले
अब भी नहीं जो सम्भले
भूकम्प,बाढ,सुनामी तो
कहीं तूफान चले
बर्फ तो पिघली ही
अब ग्लेशियर भी बह निकले
तपती धरा की लू से
अब सब कुछ जले
अब ग्लेशियर भी बह निकले
तपती धरा की लू से
अब सब कुछ जले
विकास कहीं विनाश न बन जाये
विद्युत आग की लपटों में न बदल जाए
विद्युत आग की लपटों में न बदल जाए
संभल ले मानव संभाल ले पृथ्वी को
आविष्कार तेरे तिरस्कार न बन जायें
आविष्कार तेरे तिरस्कार न बन जायें
कुछ कर ऐसा कि
सुन्दर प्रकृति शीतल धरती हो
हरे-भरे वन औऱ उपवन हों
कलरव हो पशु -पक्षियों का
वन्य जीवों का संरक्षण हो
सुन्दर प्रकृति शीतल धरती हो
हरे-भरे वन औऱ उपवन हों
कलरव हो पशु -पक्षियों का
वन्य जीवों का संरक्षण हो
प्रकृति की रक्षा ही जीवन की सुरक्षा है
आओ इसे बचाएं जीवन सुखी बनाएं ।
चित्र साभार गूगल से...
"प्रकृति का संदेश" प्रकृति पर आधारित मेरी एक और रचना ।
टिप्पणियाँ
सादर
सादर
हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आपका।
विद्युत आग की लपटों में न बदल जाए
संभल ले मानव संभाल ले पृथ्वी को
आविष्कार तेरे तिरस्कार न बन जायें
बहुत बढ़िया सुधा जी। प्रकृति एक धधकता ज्वालामुखी बन चुकी।इसके बारे में जरूर कुछ करना होगा।