हो सके तो समभाव रहें
जीवन की धारा के बीचों-बीच बहते चले गये ।
कभी किनारे की चाहना ही न की ।
बतेरे किनारे भाये नजरों को , लुभाए भी मन को ,
पर रुके नहीं कहीं,
बहना जो था, फिर क्या रुकते !
कई किनारे अपना ठहराव छोड़ साथ भी आये,
अपनापन दिखाए,कुछ बतियाये,
फिर कुछ कदम साथ चलकर ठहर गये ।
ऐसे ही कुछ किनारे साथ-साथ चले,
पर साथ नहीं चले !
धारा के मध्य आकर साथ निभाना
शायद मुश्किल था उनके लिए ।
बस किनारे किनारे ही बराबर में दौड़ते रहे,
देख-देखकर हँसते-मुस्कराते ।
हाँ , कहीं उलझनों में उलझा देख,
वे भी किनारों पर ठीक सामने ही कुछ ठहरे,
सुलझने की तरकीबें सुझाकर अलविदा बोल
वापस हो लिए अपने ठहराव की ओर ।
आखिर कब तक साथ चलते !
कभी-कभी लगा भी, कि कहीं रुकना था !
तनिक ठहरना था ।
आप-पास,आगे पीछे सब देखा
पर ठहराव मिला ही नहीं।
अपनी तो जड़ें भी मध्य धार में
हिचकोलें खाती बहती चली आ रही थी,
अपने पीछे -पीछे ।
फिर सोचा ! अब तो तभी ठहरेंगे,
जब मिलेगा अपना एक अच्छा सा ठहराव ।
जहाँ सुकून से समा सकेंगी अपनी ये जड़े भी ,
जो वक्त की तेज धार में हिचकोले खा-खाकर
कमजोर और मृतप्राय सी होने को हैं ।
बस फिर बहते गये समय की धारा में,
,चाहे-अनचाहे ।
एक समय बाद लगा जैसे अलसा गये हैं ,
ना प्रारंभ सा जोश है ना ही बहने की आतुरता ! उदासीनता सी पसरने लगी ।
मन खुद से उकताने सा लगा, मौजूदा हालातों पर पछताने सा लगा ।
जैसे कहता कि तुम्हारा क्या ओर ना छोर !
मन की सुनकर कुछ खिसियाकर
इर्द-गिर्द झाँका, तो पाया कि
यूँ मध्य धार के बहाव में जूझते हम अकेले नहीं।
हम जैसे और भी बहुत हैं !
कुछ हमारी तरह हैरान , परेशान !
तो कुछ खुश भी ! सिर्फ खुश ही नहीं !
बहुत खुश और मस्त भी ।
उन्हें देखा तो सोचने लगे आश्चर्य से।
कि कैसे ? ऐसे हालातों में खुशी कैसी ?
जाना, समझा तो पाया कि
उनका एक खास नजरिया है ,
जो उन्हें खुशी देता है ,
हर हाल में खुश रहने को प्रेरित करता है ।
विशेष ये कि वे उलझनों में मन को उलझाते नहीं ।
बल्कि उलझनों से प्राप्त अनुभव को
उपलब्धि मान कर मन से खुश हैं !
जितनी उलझनें उतने अनुभव
हर अनुभव पर एक नयी उपलब्धि
हर उपलब्धि पर एक नयी खुशी !
वे खुश हैं कि वे बह रहें है !
किनारों पर बने औरों के
सुन्दर ठहराव को देख पा रहे हैं ।
उन्हें विश्वास है कि वे भी ठहरेंगे ,कहीं बहुत ही खूबसूरत ठहराव पर ।
वे मानते हैं कि बहना तो सबको है !
और ऐसे ही धारा के मध्य ! बीहड़ता के साथ ।
वे खुश हैं कि वे पहले ही बह निकले,
समय रहते,शक्ति रहते !
यदि वे समय रहते नहीं बहे तो भी खुश हैं
ये सोचकर कि एक समय वे जमकर ठहरे,
सशक्त! निर्विध्न ! निर्बाध्य !
अब अशक्त हैं तो भी वे खुश हैं बहने में ही !
ये सोचकर कि अब क्या ठहरना,
बहुत ठहर लिए !
वे खुश हैं हर हाल में ,बस खुश हैं !
क्योंकि उन्हें खुश रहना है !
वे जानते हैं कि यही तो है जो हमारे वश में है ।
बाकी सब तो पूर्व निर्धारित है ।
समय की सतत प्रवाहित धारा में बहना या ठहरना
ये सब अपने वश में कहाँ ?
अपनी उदासीनता और खिन्नता को
उनके इस नये नजरिये ने अचंभित कर दिया !
सकारात्मकता की पराकाष्ठा कहें
या उनका विशिष्ट समभाव व्यवहार !
पर आसान तो नहीं ऐसे रह पाना !
एक बड़ा भ्रम टूटा मन का
और समझ आया कि बहें या ना बहें
ये अपने वश में नहीं ,
परन्तु जो वश में है वो तो करें !
बस खुश रहें, हर हाल में !
हो सके तो समभाव रहें ।
क्योंकि होनी तो पूर्व निर्धारित है ।
फिर 'हमने किया' का गुरूर या
'हम नहीं कर पाये' की ग्लानि का
कोई मतलब ही नहीं ।
साथ ही हर्ष या विषाद में भावातिरेक से बचकर
यदि हो सके तो बस समभाव रहें।
पढ़िए ऐसे ही एक और सृजन
● छूटे छूटता नहीं और टूटे जो तो जुड़ता भी नहीं पहले सा फिर से..
टिप्पणियाँ
सस्नेह प्रणाम।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २२ मार्च २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।