रविवार, 30 जुलाई 2017

तुम और वो.....


तुम तो तुम हो न ........अप्राप्य को हर हाल मेंं प्राप्त करना तुम्हारी फितरत भी है, और पुरुषार्थ भी......
जब तक अलभ्य है, अनमोल है.......उसे पाना ही तो है तुम्हारा सपना, तुम्हारी मंजिल.......
प्राप्त कर लिया ,बस...जीत गये.......अब क्या.... 
कुछ भी नहीं......कोई मोल नहीं ......
घर में डाल दिया सामान की तरह.........और फिर शुरू तुम्हारे नये सपने ,नयी मंजिल........
इधर वो पगली ! और उसके स्वयं से समझौते.......फिर नसीब समझ तुम्हारी निठुराई से भी प्रेम......
उफ ! हद है पागलपन की........

नफरत के बीज तुम उगाते रहे
वो प्रेम जल से भिगाती रही
दूरियां इस कदर तुम बढाते रहे
पास आने की उम्मीद लगाती रही

तुम छीनने की कोशिश में थे
उसने ये अवसर दिया ही कहाँ ?
तुम मुट्ठी भर चुराने चले
वो अंजुल भर लुटाती रही

मनहूस कह जिसे दरकिनार कर
तुम बेवफाई निभाने चले
किस्मत समझ कर स्वीकार कर
वो एतबार अपना बढ़ाती रही

क्रोध की आग में तुम जलते रहे
प्रेम से मरहम वो लगाती रही
तुम्ही खो गये हो सुख-चैन अपना
वो तो तुमपे ही बस मन लगाती रही

तुम पाकर भी सुखी थे कहाँ ?
वो खोकर भी पाती रही
तुम जीत कर भी हारे से थे
तुम्हारी जीत का जश्न वो मनाती रही

वक्त बीता तुम रीते से हो
अपनो के बीच क्यों अकेले से हो ?
प्रेम  और सेवा कर जीवन भर
वो गैरों को अपना बनाती रही........

सुख दुख की परवाह कहाँ थी उसे
बस तुम्हें खुशी देने की चाह में
नये-नये किरदार वो निभाती रही
वो एतबार अपना बढ़ाती रही...

23 टिप्‍पणियां:

  1. वक्त बीता तुम रीते से हो
    अपनो के बीच क्यों अकेले से हो ?
    प्रेम और सेवा कर जीवन भर
    वो गैरों को अपना बनाती रही......

    पुरुष की फितरत को सही शब्द दिए और स्त्री के समर्पण को नया अंदाज़ । बहुत पसंद आई ये रचना ।

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    1. तहेदिल से धन्यवाद आ. संगीता जी!मेरी पुरानी रचना पढ़कर सराहनासम्पन्न प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन करने हेतु।
      सादर आभार।

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  2. तुम पाकर भी सुखी थे कहाँ ?
    वो खोकर भी पाती रही
    तुम जीत कर भी हारे से थे
    तुम्हारी जीत का जश्न वो मनाती रही.
    - यही होती है जीतने ओर पाने की अंतिम परिणति .

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    1. हृदयतल से धन्यवाद आ. प्रतिभा जी! अनमोल प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन हेतु।
      सादर आभार।

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    1. हार्दिक धन्यवाद आदरणीय सलिल वर्मा जी!
      ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  4. नारी वेदना की मर्मान्तक अभिव्यक्ति!!!

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    1. तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार आ.विश्वमोहन जी!

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  5. नारी और पुरुष के स्वभाव का मूलभूत अंतर दर्शाती बहुत ही सुंदर रचना, सुधा दी।

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  6. निःस्वार्थ, निश्छल,समर्पित स्त्री अपने प्रियतम के मनोभावों के ताप को शीतल फुहारों से तृप्त करने के प्रयास में आजीवन अपनी पवित्र आँचल की छोर में बाँध कर रखती
    में प्रेम में भीगे बादल।
    अति सुंदर मन को स्पर्श करती बेहद सराहनीय सृजन प्रिय सुधा जी।

    सस्नेह
    सादर।

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  7. आदरणीया मैम , बहुत ही सुंदर और भावपूर्ण रचना। एक स्त्री में स्नेह देने की और पालन-पोषण करने की जो क्षमता है, वो पुरुष में नहीं। हर पुरुष को अपने जीवन में स्त्रियों का आदर करना चाहिए और उसके प्रकि कृतज्ञ होना चाहिए।
    हृदय से आभार इस बहुत ही सुंदर और सटीक रचना के लिए।

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    1. तहेदिल से धन्यवाद एवं आभार प्रिय अनंता जी!
      ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  8. बेहद हृदयस्पर्शी रचना सखी 👌

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  9. सुख दुख की परवाह कहाँ थी उसे
    बस तुम्हें खुशी देने की चाह में
    नये-नये किरदार वो निभाती रही
    वो एतबार अपना बढ़ाती रही...बहुत सुंदर नायाब पंक्तियां,पूरी रचना स्त्री मन के संपूर्णता का परिदृश्य दिखा गई ,बहुत सुंदर रचना ।

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  10. बहुत भावपूर्ण rachnaa प्रिय सुधा जी। आपके लेखन के इस अंदाज पर निशब्द हूँ। एक नारी के संपूर्ण योगदान को कब सार्थकता मिली है?

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